'हिन्दी सबके निकट ही है'
दक्षिण अफ्रीका के हिन्दी विद्वान प्रोफ़ेसर राम भजन सीताराम की पत्रकार सुनंदा वर्मा से ख़ास बातचीत
प्रोफ़ेसर राम भजन सीताराम दक्षिण अफ़्रीका के वरिष्ठ प्रवासी भारतीय हिन्दी विद्वान हैं। दक्षिण अफ़्रीका में रहकर वह हिन्दी को पढ़ने और पढ़ाने का काम करते रहें हैं। प्रोफ़ेसर राम भजन सीताराम क्वज़ूलू नटाल विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के पूर्व आचार्य और विभागाध्यक्ष रहे हैं। सुनंदा वर्मा पत्रकार हैं और भारत और विदेश में मीडिया से जुड़ी रही हैं। डेढ़ साल से प्रवासी भारतीय संबंधी अध्ययन के लिए वह दक्षिण अफ़्रीका में हैं। प्रस्तुत है सुनन्दा वर्मा की प्रोफ़ेसर राम भजन सीताराम से एक अंतरंग बातचीत
आपका दक्षिण अफ्रीका आना कैसे हुआ ?
दक्षिण अफ्रीका में गिरमिटिया भारतीयों का आगमन 1860 से शुरू हुआ। एक जहाज़ आया मद्रास से और एक कोलकाता से। दोनों लगभग एक साथ आए। एक 16 दिसंबर को और एक 26 को । मेरे बाबा कुछ साल बाद 1890 में यहां पहुँचे। और जब यहां वे आए तो उन्होंने गन्ने की खेती, चाय के बागान इत्यादि में काम करने के बजाए, रेलवे में- नटाल रेलवेज़ में काम किया। वहां उन्होंने 5 साल नौकरी की। जब पाँच साल की शर्त पूरी हो गई तो उन को छूट थी कि या तो वापस चले जाएं, वापसी का उनको किराया मिलता, या यह़ा रुक जाएं। उन्होंने यहां रुकना तय किया। भारत से आए बंधुआ मज़दूरों में केवल 25% लोग ही बंधुआ मज़दूरी के पूरे होने पर वापस भारत गए, अधिकांश यहीं रहे। यहीं उनकी शादी हुई और उन्होंने घर बसाया। मेरे पिता का जन्म यहीं हुआ।
मेरा जन्म 1945 में हुआ। मेरे बाबा ने बहुत मेहनत की। थोड़ा थोड़ा करके उन्होंने कहीं कहीं ज़मीन ली। कहीं एक एकड़ कहीं एक और। उस ज़मीन पर गन्ने की खेती, फलों के वृक्ष- संतरे, केले, लीची के बागान बनाए।
जब मैं 1971 में बनारस गया पढ़ने, तो उस समय मेरी पत्नी, दो छोटे बच्चे और मां साथ थे। कुछ दिनों के बाद मैं अपने एक मित्र के साथ गांव ढूंढने निकल गया। दादा जी के चचेरे भाइयों से मिला। पत्र व्यवहार होता रहता था यहां से। फिर बनारस से पत्नी और परिवार को लेकर गांव गया। तो वहां तो समारोह जैसा हो गया। मास्टर जी ने स्कूल को छुट्टी दे दी। वहां मेरे दादा जी के एक साथी थे। बहुत वृद्ध थे। मुझे देख कर वे दादा जी के बचपन को याद करने लगे। दोनों साथ खेलते थे। उन्होंने बताया कि दादा जी ने लोटे से किसी को मारा था ओर उसे चोट लग गई थी। सज़ा के डर से बाबा गांव से भाग गए थे। वो कोलकाता में कई साल भटकते रहे। फिर अरकाटियों, यानी मज़दूरों के रेकरूटर्स के चक्कर में फंस गए। अरकाटी अक्षिण अफ्रीका की खूब हांकते थे। कहते थे वहां मिर्ची के पौधें में सोना उगता है, सोना इतना है कि सड़क पर भी बिछा रहता है। भटका के मज़दूरों को यहां भेज देते थे।
जब बाबा यहां आ गए और उनको डर नहीं था कि यहां उनको पुलिस पकड़ेगी किसी को लोटे से मारने के लिए, तब उन्होंने घर संपर्क करके बताया कि वे यहां हैं।
बचपन की क्या यादें हैं?
राजनीतिक व्यवस्था ऐसी थी कि सब अपनी जाति के लोगों के साथ ही रहते थे। इस वजह से हम में भारतीयता बनी रही। मिश्रित नहीं हुई। खान पान, सामाजिक, पारिवारिक सम्मान, वेश - भूषा, बोल चाल सब भारतीय रहा। घर के भीतर सिर्फ हिन्दी में बात होती थी। कोई अंग्रेज़ी बोलता तो एक चांटा पड़ता, “आपन बोली बोलो,” ये कहा जाता था।
जब मैं स्कूल में अंग्रेज़ी में अच्छा कर रहा था, आगे बढ़ रहा था, तो मेरे बड़े भाई ने कहा, तुम अब हिन्दी छोड़ो तुम्हारी अंग्रेजी खराब हो जाएगी। मैंने कहा, मैं नहीं छोड़ूंगा। मैंने हिन्दी पहले सीखी है। मेरी बड़ी बहन ने मुझे हिन्दी पढ़ाई थी। वे स्कूल के बाद एक पंड़ित जी से हिन्दी पढ़ती थी। हिन्दी स्कूल में नहीं पढ़ाई जाती थी लेकिन हमारे जैसे कई लोग खुद अलग से हिन्दी पढ़ते थे।
आपने आजीविका के लिए हिन्दी ही क्यों चुनी ?
भाषा को लेकर एक प्रकार का संघर्ष चलता रहता था यहां पर। नैशनल पार्टी का अपार्थीड 1948 से शुरू हुआ। लेकिन उसके पहले भी, अंग्रेज़ों के समय में भी, भेदभाव होता था। अंग्रेज़ों के ज़माने में अंग्रेज़ी का वर्चस्व था। उसके बाद 1948 से डच लोगों की भाषा का रहा। उसका नाम अफ्रीकांस दे दिया गया । जैसे संस्कृत का प्राकृत रूप होता है वैसे ही डच का प्राकृत रूप बन गया अफ्रीकांस। इन लोगों ने फिर अफ्रीकांस को सब पर थोपना शुरू किया। 1976 में इसी कारण सोवेटो में विद्यार्थियों ने रिवोल्ट किया। अफ्रीकी बच्चे पहले अपनी भाषा में पढ़ते थे, फिर अंग्रेज़ी में। साइंस, मैथ्स अंग्रेज़ी में पढ़ाया जाता था क्योंकि अफ्रीकी भाषाएं उतनी विकसित नहीं थीं कि उनमें पढ़ाया जाए। ये वैसा ही है जैसे मानिए भारत में कहा जाए कि अब सारी पढ़ाई संस्कृत में ही होगी। भाषा को लेकर राजनीति विचारधारा होने लगी थी।
हिन्दी शिक्षा संघ हिन्दी को पढ़ाने का काम तब भी कर रहा था, हालाकि उसका रूप तब अलग था। पंडित नरदेव जी ने इसकी स्थापना 1948 में की थी। पंड़ित नरदेव सिंह हिन्दुस्तान से आए थे। उनके अलावा कोई ऐसा ट्रेंड आदमी नहीं था जो पूरी तरह से हिन्दी सिखाए। मैं नवीं कक्षा में था जब मैंने सोचा कि मुझे सुचारु रूप से हिन्दी भाषा फिर सीखनी है। मैं उनसे मिलने गया। वे बहुत ही प्रेमी स्वभाव के थे, और जो उनके पास हिन्दी या गुजराती पढ़ने जाता था, उसके प्रति उनका प्रेम और भी बढ़ जाता था। मुझसे बात करने के बाद मेरे हिन्दी के ज्ञान से वे बहुत खुश हुए। उन दिनों वे यहां पर वर्धा की परीक्षांएं लिखाते थे। पंडित जी वहीं के ट्रेंड थे।
उस समय भारतीयों के लिए एक अलग युनिवर्सिटी बनी थी। उसमें भारतीय भाषा पढ़ाई जाती थी। फिर एक समय आया जब युनिवर्सिटी में लेक्चरर के लिए एक सीट खुली। मैंने उस के लिए अप्लाए किया। तब मुझ से कहा गया, ठीक है, तुम पढ़ाओ, लेकिन और ज़्यादा पढ़ कर आओ। उन्होंने मुझ से कहा कि तुम अमरीका या जर्मनी से पढ़ कर आओ। मैंने कहा नहीं, अगर आप चाहते हैं कि मैं अच्छी तरह से पढ़ कर आऊं, तो मैं दो साल भारत से पढ़ कर आऊंगा। पढ़ाई के लिए मैं बनारस पहुंचा। और जब यहां भी लोगों को पता चला तो उन्हें अच्छा लगा क्योंकि वे भी अकादमिक से पढ़ना चाहते थे। वैसे हमारे यहां मां, मौसी लोगों ने बहुत ही सुंदर काम किया कि उन्होंने हम सबकी रुचि बनाए रखी। लेकिन जो सुचारू तरीके से, वैज्ञानिक तरीके से व्याकरण, कविता, साहित्य को प्रारंभिक स्तर से लेकर उच्च स्तर तक की शिक्षा देने के लिए ज़रूरी होता है, वह क्षमता मुझ में बनारस की पढ़ाई के बाद धीरे- धीरे आने लगी।
बनारस का अनुभव कैसा रहा?
मेरी पत्नी भारतीय परिवार की थी, लेकिन अपनी तरह की मॉड्रन लड़की थी। यहां उसने हिन्दी पढ़ी नहीं थी लेकिन अपनी दादी से बोलती थी। मैंने उससे पूछा, एक मौका मिल रहा है जाने का, चलोगी? तो उसने कहा ‘ओके’। शादी को चार साल हुए थे। मैने कहा माता जी को भी लेकर चलेंगे, पिताजी रहे नहीं और बच्चों को देखने में आसानी होगी।
बनारस में हमारा अनुभव ऐसा था कि एक दिन भी नहीं लगा कि हम कहीं बाहर के हैं। वहां के लोगों ने हमें अपना लिया। मेरे बच्चे छोटे थे, बड़ा लड़का तीन साल का था, छोटा एक साल का। पड़ोस की बच्चियां बच्चों को ले जाती थी, दिनभर अपने घर रखती थीं। बहुत प्रेम मिला हमलोगों को। क्लास में, डिपार्टमेंट से, साथियों से- ऐसा संबंध बना कि आज चालीस साल बाद भी वह बना हुआ है। एक तो मेरा भाई बन गया है। मैं हर साल जाता हूं तो उसी के पास रहता हूं। उन दो साल हमारा स्वास्थ भी बहुत बढ़िया रहा, सर दर्द तक नहीं हुआ।
अपार्थीड के ज़माने में हम गए थे। दो साल भारत में बिलकुल स्वतंत्र हो कर रहे। जब दो साल पूरे होने लगे तो पत्नी ने कहा, वापस अपार्थीड में जाकर बड़ी अड़चन सी लगेगी, डर लगेगा। उसने तो ये भी सुझाव दिया कि मैं अकेला वापस आऊं, यहां पढ़ाऊं और हर छ महीने में भारत आकर पत्नी और बच्चों से मिल लूं। भारत में बिना किसी डर के बिताए वे दो साल बहुत ही अच्छे थे।
भारत से आकर पढ़ाने का अनुभव कैसा रहा?
उस समय भारतीयों के लिए अलग यूनिवर्सिटी होती थीं हालाकि पढ़ाने वाले ज़्यादातर गोरे होते थे। जब मैं भारत से पढ़कर वापस आया तो लोग मुझे सम्मान की दृष्टि से देखते थे। धीरे धीरे मेरी योग्यता सामने आई और मेरी मांग होने लगी। यहां एक डॉक्यूमेंटेशन सेंटर है भारतीयों के लिए, उसके बोर्ड ऑफ़ मैनेजमेंट में मैं 17-18 साल रहा।
जब हिन्दू सेंटर की योजना का प्रस्ताव रखा गया तब भी मैं उससे जुड़ा था, उसके पूरे होने के बाद और आज तक मैं उससे संबद्ध हूं। हिन्दू सेंटर हमारे समुदाय के लिए है। हम यह नहीं कहते कि ये हिन्दुओं के लिए है। यह सबके लिए है। पड़ोस का स्कूल हर साल यहां अपना कार्यक्रम करता है। हम यह जगह उन्हें मुफ़्त देते हैं। उस स्कूल में लगभग शत प्रतिशत सारे बच्चे काले हैं। हमें किसी के रंग से मतलब नहीं है, हम जगह बच्चों के लिए देते हैं। बस।
हिन्दी शिक्षा संघ से मैं बचपन से जुड़ा था। 1986-1987 में मैं और सक्रिय भूमिका में आया।
हिन्दी शिक्षा संघ के बारें में कुछ बताएं।
जब हिन्दी शिक्षा संघ की बागडोर दूसरे के हांथो आई, तब डॉ हेमराज ने कहा कि हमलोगों को अपनी संस्था स्वयं बनानी चाहिए। फिर जन समर्थन के साथ हिन्दी शिक्षा संघ का भवन बना। डॉ हेमराज की दूरदर्शिता से एक रेडियो स्टेशन भी खुला। पंड़ित नरदेव सिंह जी ने हिन्दी शिक्षा संघ की स्थापना की और बहुत काम किया, और डॉ हेमराज ने उस काम को और आगे बढ़ाया। डॉ हेमराज अब न्यूज़ीलैंड में रहते हैं। मैं हिन्दी शिक्षा संघ से 1986-1987 में जुड़ा जब डॉ हेमराज ने बात की और कहा कि हमलोग हिन्दी तो पढ़ा रहे हैं, फिर परीक्षांए कब तक बाहर से कराई जाएंगीं। फिर यह तय हुआ कि एक इक्ज़ैमिनेशन बॉडी बनाई जाएगी। दूसरे प्रांत हाउटेंग में भी हिन्दी शिक्षा संघ बहुत अच्छा काम कर रहा है। हमारे हीरालाल भाई और गरीब भाई हिन्दी के लिए जी तोड़ मेहनत कर रहे हैं।
दक्षिण अफ़्रीका में हिन्दी का भविष्य आप किस रूप में देखते हैं?
मैं जानता हूं कि यहां हिन्दी से किसी की रोटी नहीं सिकेगी। एक समय था जब सरकारी स्कूलों में हिन्दी पढ़ाने का मौका था। अब तो ये सांसकृतिक चीज़ है। हिन्दी लोग पढ़ेंगें, भगवत गीता, रामायण, हनुमान चालीसा, सुंदरकांड लोग पढ़ेंगें तो उन्हें वह शान्ति मिलेगी जो किसी भी भौतिक सुख से कहीं ज़्यादा है। हिन्दी आध्यात्मिक विकास का एक माध्यम है। यहां पर सुंदरकांड पाठ हर जगह होता है। लेकिन उसका मतलब तब समझ आता है जब मैं समझाता हूं। अगर आप रामायण पढ़ना चाहते हैं, हनुमान चालीसा पढ़ना चाहते हैं, सुंदरकांड समझना चाहते हैं तो हिन्दी सीखनी ही है।
यहां सुंदरकांड का पाठ अकसर होता है। होली दीवाली प्रवचन होता है। एक बार 2001 में यहां लोगों ने एक मीटिंग रखी, औपचारिक ढंग से मुझे बुलाया और कहा, “भाई जी, दे वांट यू टो एक्सप्लेन द सुन्दरकाण्ड टू अस” तो मैंने कहा आप रोज़ गाते हैं, तो समझाने की क्या ज़रूरत है। तो बोले, हम पढ़ते हैं तो बल मिलता है लेकिन किस चीज़ से बल मिलता है ये हम नहीं जानते। तो मैंने कहा कि आप दिन और समय निर्धारित करें और मैं समझाऊंगा। फिर दो संडे(रविवार ) दो दो घंटे हमने समझाया और जैसे जैसे उनको समझ आ रहा था उनके चेहरे खिल रहे थे।
बहुत काम है करने को। हिन्दी में लोगों की रुचि बनाए रखनी है। रेडियो, मनोरंजन, संगीत के माध्यम से शास्त्रीय संगीत, फिल्मी संगीत के माध्यम से भी रुचि बनती है। सुनते रहने से भाषा आती है। जैसा डॉ विमलेश कान्ति वर्मा ने हाल में हिन्दी शिक्षा संघ, डरबन में उपस्थित अध्यापकों से चर्चा करते हुए कहा कि यदि हिन्दी को सुरक्षित रखना है और सबल बनाना है तो ज़रूरी है कि हिन्दी बोली जाए, सुनी जाए, लिखी और पढ़ी जाए।
बच्चे मां को मम्मी कहेंगें, डैडी कहेंगें लेकिन दादी को आजी ही कहते हैं। हिन्दी सबके निकट ही है, बस बच्चों को रास्ता दिखाना है और पहचनवाना है।