कैसे बने हिन्दी विश्वभाषा?
हाल में मॉरिशस में हुए 11वें विश्व हिंदी सम्मेलन के उद्घाटन संबोधन में भारत की विदेश मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज ने सम्मेलन के लोगो के बारे में बताते हुए कहा था कि उसमें भारत का राष्ट्र पक्षी मोर और मॉरिशस का राष्ट्र पक्षी डोडो हैं, जिसमें डोडो लुप्त होती हिन्दी भाषा का प्रतीक है। श्रीमती सुषमा स्वराज ने कहा कि भारत ने हिन्दी को बचाने और बढ़ाने की जिम्मेदारी ली है, भारत का मोर आएगा और डोडो को बचाएगा। विश्व में हिन्दी कैसे बचे, बढ़े और विश्वभाषा बने, ये जानने के लिए वरिष्ठ पत्रकार सुनन्दा वर्मा ने बात की लब्धप्रतिष्ठ भाषा वैज्ञानिक विमलेश कान्ति वर्मा से। डॉ विमलेश कान्ति वर्मा कई दशकों से देश-विदेश में हिंदी प्रचार-प्रसार और विशेष रूप से हिन्दी शिक्षण का काम कर रहें हैं। 1978 में प्रकाशित विश्व का पहला बुल्गारियन-हिन्दी शब्दकोश भी उन्हीं का काम है। विदेश में हिन्दी भाषा शिक्षण पर उनकी अनेक पुस्तकें हैं और विदेश के कई विश्वविद्यालय उनके माध्यम से ही विदेशियों को हिन्दी सिखा रहे हैं।
भारत ने हिन्दी को बचाने और बढ़ाने की ज़िम्मेदारी ली है। कैसे पूरी हो सकती है ये ज़िम्मेदारी ?
इस बार मॉरिशस में आयोजित ११ वें विश्व हिन्दी सम्मेलन में भारत सरकार के शिष्ट मंडल के सदस्य के रूप में शामिल होने का मुझे भी अवसर मिला| मुझे 'हिंदी भाषा शिक्षण और भारतीय संस्कृति' सत्र के सह-उपाध्यक्ष का दायित्व सौंपा गया था| सत्र के अध्यक्ष थे डॉ. उदय नारायण गंगू। वे मॉरिशस के वरिष्ठ साहित्यकार है पर भाषा शिक्षण से उनका विशेष सम्बन्ध नहीं था| मेरे इस सत्र में भारत की विदेश मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज तथा मॉरिशस की शिक्षा मंत्री श्रीमती लीलावती दूकन -लक्ष्मन की उपस्थिति से ऐसा लगा कि भारत सरकार इस बार हिन्दी के वैश्विक प्रचार-प्रसार के सम्बन्ध में गंभीर है अन्यथा भारत का विदेश मंत्री किसी शैक्षणिक सत्र में उपस्थित रहे, ऐसा मैंने न कभी देखा और न ही सुना| सामान्यतः मंत्री आदि उद्घाटन सत्र में उपस्थित रहकर अपने दायित्व को पूरा मान लेते हैं| भारत ने हिन्दी को बचाने और बढ़ाने की जिस ज़िम्मेदारी की सम्मलेन में घोषणा की सम्भवतः विदेश मंत्री की सत्रों में इस उपस्थिति से लगा कि भारत इस दिशा में ज़िम्मेदारी निभाने पर गंभीरता से विचार कर रहा है| इस दिशा में सात साल बाद हिन्दी की सर्वोच्च सलाहकार समिति 'केन्द्रीय हिन्दी समिति' की प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में बैठक हुई| केन्द्रीय हिंदी समिति की इस ३१ वीं बैठक का होना भी यह संकेत देता है कि शायद देश अब हिन्दी को लेकर अधिक गंभीर है| जब देश का प्रधान मंत्री और विदेश मंत्री दोनों हिन्दी को लेकर सक्रिय हो जाएँ इसका सीधा सादा अर्थ मुझे तो यही लगता है कि देश का सोया हुआ स्वाभिमान जाग रहा है और देश हिंदी की वैश्विक प्रतिष्ठा के लिए कमर कस चुका है| देश की इस तत्परता और सक्रियता को देखकर जनता के मन में कभी -कभी यह शंका उठती है कि कहीं यह आगामी चुनाव को दृष्टि में रखकर किया गया छलावा मात्र तो नहीं है| मैं आशावादी व्यक्ति हूँ, अपने इन दोनों राजनेताओं के अब तक किये गए कार्यों को देखकर मुझे यह लगता है कि पिछले सालों की तरह यह केवल दिखावा न हो कर यह दोनों राजनेताओं की हिन्दी के प्रति निष्ठा और संकल्प का प्रतिबिम्बन है |
भारत सरकार हिन्दी को विश्वभाषा बनाने की भी कोशिश कर रही है। विश्वभाषा बनने का मतलब क्या है ?
विश्व भाषा का सामान्य अर्थ है वह भाषा जिसके बोलने वाले विश्व के कई देशों में हों और जिस भाषा से दुनिया के विविध देशों में व्यक्ति का काम चल जाए| ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में, शिक्षा के क्षेत्र में, वाणिज्य और व्यापार के क्षेत्र में जिस भाषा का व्यवहार होता हो, जिसमे वैश्विक स्तर का साहित्य उपलब्ध हो| आज विश्वभाषा का मानदंड यह भी बन गया है कि जो भाषा संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा हो वह विश्वभाषा कही जाती है| संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषाएँ आज अंग्रेज़ी, अरबी, चीनी, जर्मन, फ्रांसीसी तथा स्पेनी हैं और इसलिए ये भाषाएँ विश्वभाषाएँ कही जाती हैं| हिन्दी भी संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा बन सके इसके लिए भारत निरंतर प्रयत्नशील है| हिन्दी विश्वभाषा बन सके इसके लिए भारत सरकार सन १९७५ से विश्व के अलग-अलग देशों में विश्व हिंदी सम्मलेन आयोजित कर विश्व के अनेक देशों में बसे हुए हिन्दी प्रेमियों को संगठित कर हिन्दी की वैश्विक उपस्थिति का परिचय विश्व को कराना चाहती है| अब तक यह सम्मलेन तीन बार भारत में (नागपुर १९७५, नई दिल्ली १९८३, भोपाल २०१५) तथा ९ बार विदेश के अनेक देशों में हो चुके हैं| मॉरिशस में यह सम्मलेन तीसरी बार (१९७६,१९९३,२०१८) हुआ है| सूरीनाम (२००३), दक्षिण अफ्रीका (२०१२), त्रिनिदाद व टोबागो (१९९६) में यह सम्मलेन हो चुका है| इन भारतवंशी देशों के अतिरिक्त अमेरिका (२००७) और इंग्लैंड (१९९९) में जहाँ हज़ारों-लाखों भारत मूल के लोग बसे हुए हैं वहां भी भारत सरकार ने विश्व हिन्दी सम्मेलनों का आयोजन किया है| संभव है अगला विश्व हिन्दी सम्मलेन फ़ीजी में हो क्योंकि विश्व का अकेला देश फ़ीजी है जहाँ हिन्दी देश की संसद मान्यता प्राप्त भाषा है, जहाँ पर्याप्त सृजनात्मक हिन्दी साहित्य आज लिखा जा रहा है और जहाँ के अधिकांश निवासी हिन्दी समझते और बोलते हैं पर अभी तक विश्व हिन्दी सम्मलेन वहां संभव नहीं हो सका है| विविध विश्व हिन्दी सम्मेलनों के अतिरिक्त भारत सरकार भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद्, नई दिल्ली के माध्यम से लगभग पांच दशकों से 'सांस्कृतिक विनिमय योजना' के अधीन विदेशी विश्वविद्यालयों में हिन्दी अध्यापकों की प्रतिनियुक्ति कर हिन्दी भाषा शिक्षण का कार्य कर रही है| इसके साथ ही सरकार महात्मा गांधी अंतर-राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय की वर्धा में स्थापना कर विदेशियों को हिन्दी सिखाने की व्यवस्था करती है| आगरा स्थित केन्द्रीय हिन्दी संस्थान भी भारत में विदेशियों को हिन्दी सिखाने का कार्य भी पांच दशकों से अधिक समय से कर रहा है|
क्या यह काफ़ी है?
देश और विदेश में भारत सरकार की ओर से की जाने वाली ये सारी हिन्दी प्रचार की व्यवस्थाएं उपयोगी हैं पर ये सारी योजनायें और प्रयत्न अपेक्षित फल नहीं दे पा रही हैं ऐसा क्यों है, यह विचारणीय ही नहीं, शोचनीय और चिंतनीय भी है| हम योजनायें बनाते हैं, करोड़ों रुपये व्यय भी होते है पर उनसे जो कार्य सिद्धि होनी चाहिए वह कभी नहीं होती| इसका कारण यही है कि हम योजनाओं की उपलब्धि की कभी निश्छल मन से समीक्षा नहीं करते| हमारा दर्शन -'होइहैं वही जो राम रचि राखा' बन गया है| हम कभी इस पर निष्पक्ष मन से विचार ही नहीं करते कि जो योजनायें बनी है वे क्यों अपेक्षित परिणाम नहीं दे पा रही हैं| आवश्यक है कि हम कार्यान्वित व्यवस्थाओं की समीक्षा करें और तदनुसार योजनाओं में परिष्कार करें जिससे वे लक्ष्य सिद्धि में सहायक हों |
कई विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ने वालों की संख्या लगातार कम हो रही है, हिन्दी विभाग बंद भी हो रहे हैं। इसका क्या कारण है ?
यह बात सही है कि नए खुले विभागों में हिन्दी शिक्षण प्रारम्भ होता है और कुछ वर्षों में हिन्दी विभाग बंद हो जाता है| मैं चूंकि विदेश में हिन्दी शिक्षण से ४० वर्षों से भी अधिक समय से जुड़ा रहा हूँ इसलिए यह स्थिति क्यों है, यह मैं समझता हूँ| जहाँ केम्ब्रिज जैसे पुराने विश्वविद्यालय में हिन्दी कक्षाओं का बंद हो जाना एक चिंतनीय विषय है वहीं बल्गारिया के सोफिया विश्वविद्यालय में फलता -फूलता हिन्दी विभाग है| क्या कारण हैं, हमें सोचने के लिए विवश करते हैं |
विदेशी भाषा के रूप में हिन्दी शिक्षण विशेषज्ञता का विषय है| हम सामान्यतः यह मान लेते हैं कि जो हिन्दी भाषी क्षेत्र का है या जिसकी मातृभाषा हिन्दी है वह विदेश में हिन्दी पढ़ा सकता है या विश्वविद्यालय का जो हिन्दी अध्यापक एम .ए. में प्रथम श्रेणी और डॉक्टरेट उपाधि प्राप्त है, वह विदेश में भी हिन्दी सफलता पूर्वक पढ़ा सकता है| यदि हम ऐसा सोचते हैं तो हम गलती करते हैं| एम.ए.की प्रथम श्रेणी या डॉक्टरेट की उपाधि विदेश में हिंदी के अध्यापन के लिए पर्याप्त योग्यता नहीं हैं| आवश्यकता है भाषा शिक्षण में तथा हिन्दी भाषा में विशेषज्ञता की| यदि हिन्दी की भाषिक संरचना का तथा भाषा शिक्षण प्रविधि का अच्छा ज्ञान अध्यापक को नही है तो भाषा शिक्षण की कक्षा कभी भी सफल नहीं होगी| उच्च स्तर पर साहित्य शिक्षण तथा भाषा शिक्षण दो अलग अलग अनुशासन हैं, दोनों की अपेक्षाएं और लक्ष्य भी अलग अलग हैं| विदेश के लिए अध्यापकों का चयन करते समय इन मूलभूत बातों का यदि 'अध्यापक चयन समिति' ध्यान नहीं रखती तो विदेश में हिन्दी शिक्षण कभी भी प्रभावी नहीं हो सकता| इसी प्रकार विदेश में हिन्दी को बढ़ावा देने के लिए मंत्रालय से जो पुस्तकें उपहार स्वरूप भेजी जाती है वे पुस्तकें वहां के लिए उपयोगी नहीं होती हैं| हम प्रकाशकों के दबाव में या अन्य कारणों से पुस्तकें विदेश के लिए खरीदते है पर उनका कोई लाभ नहीं होता है| कौन सी पुस्तकें हिन्दी शिक्षण के लिए उपयोगी हैं ऐसी पुस्तकों की खरीद विशेषज्ञ समिति की देख रेख में ही होनी चाहिए| ऐसी पुस्तकों के उपहार का क्या लाभ जिसे कोई न चाहे, उपयोगी ना हो और उसे कोई अपने देश में भार समान समझे| उपयुक्त शिक्षण सामग्री का तथा उपयुक्त अध्येता कोशों का अभाव भी हिन्दी शिक्षण की सफलता में एक बड़ा बाधक कारण है |
साहित्य के शिक्षण और भाषा के शिक्षण में क्या अंतर है ?
भाषा शिक्षण और साहित्य शिक्षण में मूलभूत अंतर प्रकृति का है| भाषा ज्ञान के बाद साहित्य का अध्ययन होता है| बिना भाषा के पूर्ण ज्ञान के साहित्य को समझा नहीं जा सकता है| भाषा ज्ञान का अर्थ है अपने भावों को सुनकर, बोलकर, पढ़कर और लिखकर अभिव्यक्त करने में सक्षम होना| भाषा ज्ञान के दो स्तर है -भाषिक क्षमता और भाषिक दक्षता| भाषा शिक्षण का पहला सोपान भाषिक क्षमता का विकास अर्थात भाषा की ध्वनि संरचना, व्याकरणिक संरचना (शब्द संरचना व वाक्य संरचना) तथा अर्थ संरचना का ज्ञान है| भाषिक दक्षता का सम्बन्ध समाज के सन्दर्भ में भाषा के विविध लोक सम्मत और शास्त्र सम्मत प्रयोगों के ज्ञान से है| साहित्य शिक्षण का सम्बन्ध भाषा की उच्चस्तरीय अनुभूति और संवेदना की अभिव्यक्ति की विविधता के विवेचन और विश्लेषण से है| इसलिए भाषा और साहित्य का अध्ययन अध्यापन अपने में दो अलग और विशिष्ट कलाएं हैं |
विदेश में हिन्दी शिक्षण सफल कैसे हो ?
विदेश में हिन्दी शिक्षण लाभदायी हो, विदेश में हिन्दी का सम्मान बढ़े इसके लिए कई बातों पर ध्यान देना आवश्यक है -
१. विदेश में हिन्दी भाषा शिक्षण एक अनुशासन के रूप में मानाजाये| उपयुक्त मानक पाठ्यक्रम का निर्माण हो,उपयुक्त शिक्षण सामग्री तैयार कारवाई जाये -विशेषकर अध्येता कोशों का निर्माण हो,ऑनलाइन हिन्दी शिक्षण की व्यवस्था हो |
२ .विदेश में भेजे जाने वाले हिन्दी शिक्षक 'विदेशी भाषा के रूप में हिन्दी शिक्षण प्रविधि' से परिचित ही नहीं उसमे पारंगत हों,हिन्दी भाषा की संरचना,भाषा के समाज शास्त्र का उन्हें अच्छा ज्ञान हो तथा जो शुद्ध हिन्दी बोल और लिख सकें|इसके लिए योग्यता परीक्षा का आयोजन उपयोगी हो सकता है |
३. विदेशी छात्रों की हिंदी पढ़ने के बाद 'भाषा प्रवीणता परीक्षा' हो और भारतीय उच्चायोगों में स्थानीय अधिकारियों की जब नियुक्ति हो उन्हें प्राथमिकता दी जाए तथा मात्र अंग्रेज़ी पढ़े हुए छात्रों की नियुक्ति सिद्धान्ततः न की जाए| इससे देश में हिन्दी की स्थिति सम्मानजनक बनेगी और विदेश में हिंदी पढ़ने वालों का मनोबल बढ़ेगा|
क्या हिन्दी विश्वभाषा बन सकती है ?
हिन्दी बोलने वालों की संख्या आज विश्व में चीनी के बाद दूसरे स्थान पर है| हिन्दी विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत की भाषा है जिसे मातृभाषा के रूप में देश की लगभाग आधी जनता बोलती है, जो उत्तर में नेपाल की तराई से लेकर दक्षिण में कन्याकुमारी तक, पूर्व में नागालैंड से लेकर पश्चिम में कच्छ तक जनसंपर्क, व्यापार व वाणिज्य तथा मनोरंजन की भाषा है| हिन्दी विदेश में बसे हुए दो करोड़ से भी अधिक भारतीय मूल के भारतीयों की भाषा है| ऐसी स्थिति में हिन्दी विश्वभाषा तो है ही पर जिस पारिभाषिक अर्थ में हम विश्वभाषा की चर्चा करते हैं उस अर्थ में भी हिन्दी विश्वभाषा बन सके इसके लिए देश प्रयत्न शील है हमें भी इस दिशा में संकल्प लेना है और सक्रिय होना है। तभी हिंदी को विश्वभाषा का गौरव मिल सकेगा जिसकी वह अधिकारिणी है।
विश्व भाषा बनने के सोपान क्या हैं ?
हिन्दी विश्वभाषा के पद पर प्रतिष्ठित हो सके इसका पहला सोपान मेरी दृष्टि में भारत के जनमन में हिन्दी को प्रतिष्ठित करना है| भारत में हिन्दी सम्मान और स्वाभिमान की भाषा बने यह पहली अनिवार्यता है| महात्मा गांधी ने हिन्दी को देश को जोड़ने वाली भाषा कहा, अंग्रेज़ी की देश में बढ़ती हुई प्रभुता को देश की भाषाओं के लिए बड़ा खतरा बताया और हिन्दी को राष्ट्रभाषा के पद पर प्रतिष्ठित करने के लिए आजीवन संघर्ष किया| पर देश की स्वाधीनता के बाद हिन्दी को वह स्थान नहीं मिला जिसकी वह अधिकारिणी थी| अंग्रेज़ी प्रभुता की भाषा बन गई ऐसा हमें लगने लगा, पर मुझे लगता है कि देश में अंग्रेज़ी उतनी नहीं बढ़ी जितनी अंग्रेजियत बढ़ी है| अंग्रेज़ी संभ्रांतता की पर्याय बन गई क्योंकि आज शुद्ध अंग्रेज़ी बोलने वाले बहुत कम रह गए| भारतीय संविधान सभा के सदस्यों की आज के संसद सदस्यों से तुलना करें तो स्पष्ट होगा की आज संसद में शुद्ध अंग्रेज़ी बोलने वाले कितने सांसद बचे हैं| एक समय जहाँ अधिकाँश टी.वी. चैनल अंग्रेज़ी के होते थे आज हिन्दी चैनलों की भरमार है, अंग्रेज़ी चैनल ढूँढ़ने से मिलते हैं| हिन्दी समाचार पत्रों की संख्या के सामने अंग्रेज़ी के समाचार पत्र बहुत कम रह गए हैं| हिन्दी की व्यावहारिक प्रयोग परिधि इन छः दशकों में बहुत बढ़ी है, पर अभी भी हिन्दी को विश्वव्यापी बनाने के लिए बहुत कुछ करना शेष है|
सच तो यह है कि आज तक हिन्दी जाने और बोले बिना विश्व के सबसे बड़े इस लोकतंत्र भारत का कोई प्रधान मंत्री नहीं बन सका, बिना हिन्दी जाने विशाल भारतीय बाज़ार पर कोई अधिकार नहीं कर सकता, बड़े से बड़ा लेखक बिना हिन्दी में अनूदित हुए लोकप्रिय और देश व्यापी लेखक नहीं हो सकता और बड़े से बड़ा अभिनेता बिना बालीवुड आये और हिन्दी फिल्म में काम किये बिना देश व्यापी लोकप्रियता प्राप्त नहीं कर सकता| बड़े से बड़ा संगीतज्ञ हिन्दी के तुलसी, सूर, मीरा और कबीर के भजन गाये बिना सर्वश्रेठ संगीतज्ञ की प्रसिद्धि नहीं प्राप्त कर सकता| हिन्दी की इस शक्ति का अनुमान लगाते हुए विश्व के बड़े पूंजी वादी देश भी आज अपने देशों में हिन्दी सिखाने के उपक्रम कर ही रहे हैं |
मुझे लगता है कि हिन्दी विश्व भाषा सच्चे अर्थों में बन सके इसके लिए सबसे पहले आवश्यक है कि हम हिन्दी की शक्ति को पहचानें, उसे हम देश के स्वाभिमान की भाषा समझें, उसे देश की अभिव्यक्ति की भाषा समझें और उसकी समृद्धि, उसकी व्यापकता पर गर्व करें और सबसे अधिक आज महत्वपूर्ण है कि राजभाषा हिन्दी के प्रचार और प्रसार की जो संवैधानिक व्यवस्थाएं दी गई है उनका पूरी निष्ठा से अनुपालन हो और उनकी उपेक्षा राष्ट्रद्रोह मानकर दंड का विधान उसी प्रकार हो जैसे संविधान के विरोध और उसकी उपेक्षा पर होता है|
दूसरी महत्वपूर्ण बात है कि हम हिन्दी को ज्ञान विज्ञान की भाषा, अंतर राष्ट्रीय व्यापार की भाषा बनाने के लिए समृद्ध करें| भारतीय भाषाओं का आश्रय लेकर हिन्दी भाषा की शब्दावली का विकास करें, जो आज देश शब्दावली के माध्यम से कर भी रहा है| संयुक्त राष्ट्र में स्वीकृत सभी भाषाएँ अपने देशों में ज्ञान विज्ञान, व्यापार, अंतरराष्ट्रीय विचार विनिमय के लिए समर्थ भाषाएँ है, वे विदेशी भाषाओं की बैसाखी नहीं लेती| रूस और जापान की भाषाएँ यद्यपि संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषाएँ नहीं है पर पूर्ण समर्थ भाषाएँ हैं, हिन्दी को हमें अभी भी और समृद्ध करना होगा, उसे ज्ञान -विज्ञान और तकनीक की भाषा भी बनाना होगा|
देश तन-मन-धन से प्रयासरत है की हिन्दी संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा भी बने| संकल्प से ही सिद्धि होती है| हिंदी जो विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की भाषा है वह संयुक्त राष्ट्र संघ की भाषा तो बनेगी ही, अधिक आवश्यक है कि हम अपनी भाषा के महत्व को समझे और उसे सामर्थ्यवान बनाने के निरंतर प्रयत्न भी करें|