'मैं चाहता हूं हिन्दी मेरी प्रथम भाषा हो'
दक्षिण अफ्रीका के कर्मठ हिन्दी सेवी, श्री विरजानंद बदलू ग़रीब की पत्रकार सुनंदा वर्मा से ख़ास बातचीत
विश्व हिन्दी दिवस हर वर्ष १० जनवरी को दुनिया भर में इसलिए मनाया जाता है कि हिन्दी भाषा के बारे में लोगों की जानकारी बढ़े और एक अंतर राष्ट्रीय भाषा के रूप में हिन्दी की मान्यता हो सके| संख्या बल की दृष्टि से विश्व में हिन्दी बोलने वालों की संख्या दूसरे स्थान पर है| जब हम वैश्विक स्तर पर हिन्दी की व्यापकता की चर्चा करते हैं, हम हिन्दी की महान साहित्यिक निधियों की बात करते हैं तो हमें उनको नहीं भूलना चाहिए जिनके प्रयत्नों से हिन्दी दुनिया के अनेक कोनों में आज जीवित है| अपने दक्षिण अफ्रीका के दीर्घ प्रवास में वरिष्ठ पत्रकार सुनंदा वर्मा का परिचय जोहानेसबर्ग, दक्षिण अफ्रीका के कर्मठ हिन्दी सेवी श्री विरजानंद बदलू ग़रीब से हुआ| हिन्दी के सम्बन्ध मे ग़रीब भाई से सुनंदा वर्मा की जो ख़ास बातचीत हुई,उसके महत्वपूर्ण अंश यहाँ प्रस्तुत हैं |
विरजानंद बदलू ग़रीब (जन्म १९३९) को ज़्यादातर लोग ग़रीब भाई के नाम से जानते हैं| वे दक्षिण अफ्रीका के हौटेंग प्रांत में कई दशकों से हिन्दी के प्रचार प्रसार में लगे हैं| पूरे प्रांत में सप्ताह के सातों दिन वे लोगों को हिन्दी सिखाते हैं| वे 'इंडिजिनस एंड लैंग्वेज हेरिटेज ग्रुप' के अधिकारों की सुरक्षा के लिए बनी सरकारी संस्था ‘द हौटेंग प्रांतीय भाषा समिति' के सदस्य भी हैं |
हिन्दी से आपका जुड़ाव सबसे पहले कब और कैसे हुआ ?
मेरे पिता भारत से दक्षिण अफ्रीका १९२० के आस पास आये थे| उन्हें शुरू में जहाँ भी काम मिला उन्होंने काम किया- कोयले की खान में, होटल में रसोइये के रूप में, तो कभी घर-घर अखबार बांटने का काम किया| उन्होंने किराए पर एक छोटी टीन की शैंटी ली| वहां बिजली नहीं थी| पड़ोसी के घर बिजली थी तो उन्होंने टीन की दीवार में एक छोटा छेद कर दिया जिससे थोड़ी सी रोशनी आ सके| उसी रोशनी में उन्होंने हिन्दी और संस्कृत सीखी| वाल्मीकि रामायण पर उन्होंने धीरे-धीरे अच्छा अधिकार कर लिया| वह पक्के आर्य समाजी व्यक्ति भी बन गए | अपनी भाषा और संस्कृति के प्रति उनके मन में गहरा लगाव था| घर पर हम भोजपुरी या टूटी-फूटी हिंदी बोलते थे| वह बहुत शुद्ध भाषा नहीं थी पर वह अपनी भाषा थी | मेरी माँ का जन्म यहीं हुआ था| वह अपनी भाषा के अलावा दूसरी कोई भाषा नहीं बोलती थी| नाना लखनऊ से आये थे| मेरे पिता का परिवार गोंडा का रहने वाला था| सौभाग्य से जहाँ हम रहते थे वह स्थान हिन्दी और हिन्दू शिक्षा का बड़ा केंद्र था| हिन्दी स्कूल के बाहर ही बोली जाती थी| हिन्दी स्कूल के पाठ्यक्रम का कभी भी हिस्सा नहीं रही| दक्षिण अफ्रीका की सरकार की जनभाषाओं के प्रचार प्रसार में कोई रूचि नहीं थी| जैसे-जैसे हम बड़े होते गए अंग्रेज़ी का प्रभाव दैनिक बोलचाल में बढ़ता गया| परिवेश बदलने लगा| जीवन शैली में बदलाव आया| मैं मैट्रिक में पहुंचा, पिता का देहांत हो गया| मैं यूनिवर्सिटी पढ़ने गया और उसके बाद गणित पढ़ाने के लिए जाम्बिया चला गया| वहां सात साल मैंने गणित विषय पढ़ाया|
दक्षिण अफ्रीका में हिन्दी पढ़ाना आपने कैसे और कब शुरू किया ?
दक्षिण अफ्रीका में १९८२-२००२ तक मैंने अपने घर बिनोनी में सत्संग का आयोजन शुरू किया| हर रविवार को लगभग ४० बच्चे मेरे घर आते| मैं उन्हें रामायण पढ़ाता, रामानंद सागर का बनाया हुआ रामायण सीरियल दिखाता और उसके विषय में उन्हें बताता| सत्संग में आनेवालों में एक महिला थी जिसके बच्चे मेरे यहाँ सत्संग में आया करते थे| उन्होंने मुझे बताया कि वे प्रवेश की परीक्षा दे रही हैं जो हिंदी शिक्षा संघ की पञ्च वर्षीय परीक्षा के स्तर की परीक्षा है (हिंदी शिक्षा संघ एक गैर- सरकारी संस्था है जो दक्षिण अफ्रीका में हिन्दी का प्रचार-प्रसार करती है और जिसकी स्थापना सन १९३८ में हुई थी)। उसने मुझसे कहा कि मैं भी प्रवेश परीक्षा के लिए नाम लिखा लूँ| यही से मेरा हिन्दी के साथ जुड़ाव फिर हुआ | एक अजीबोग़रीब घटना हुई जिसके बाद मैंने मन में तय कर लिया कि मुझे हिन्दी ज़रूर सिखानी है। सत्संग के अंत में हमेशा एक भजन गाया जाता था| भजन की पंक्तियाँ थीं “हे प्रभो अन्न दाता ज्ञान हमको दीजिये, शीघ्र सारे दुर्गुणों को दूर हम से कीजिये”| भजन के अंत में कहा जाता था - "प्रेम से हम गुरुजनों की नित्य ही सेवा करें"। मैं हारमोनियम बजा रहा था और सभी बड़े भक्ति भाव से गा रहे थे| उन्होंने ‘दुर्गुणों’ के स्थान पर ‘गुरुजनों’ शब्द अनजाने में बदल दिया था और भजन की पंक्ति बन गई थी ''शीघ्र सारे गुरुजनों को दूर हमसे कीजिए”| मैंने तय कर लिया कि मुझे तुरंत ही हिन्दी स्कूल शुरू कर देना चाहिए| हिन्दी के प्रति लोगों की रुचि इतनी बढ़ गयी थी कि दो मेरे साथी भी हिन्दी सीखना चाहते थे| छात्र भी थे| सन २००६ में भारतीय सांस्कृतिक केंद्र, जोहानेसबर्ग ने मुझे अपने यहाँ ही हिन्दी सिखाने के लिए आमंत्रित किया| एक के बाद एक नई घटनाएँ हो रही थीं |
आप अपने छात्रों को किस प्रकार हिन्दी के लिए प्रेरित करते हैं ?
जब मेरी भेंट हीरालाल शिवनाथ से हुई, जो इस क्षेत्र के निष्ठावान और कर्मठ हिन्दी प्रचारक थे तो हमारी टीम और मज़बूत हो गई| हमारा लक्ष्य स्पष्ट था| हमें हिन्दी शिक्षा संघ से सामग्री तो मिल रही थी पर हमारी सोच में बहुत अंतर था| हौटेंग में कुछ खास उत्साह नहीं था हमारे काम को लेकर जबतक सन २००७ में हिन्दी शिक्षा संघ के अध्यक्ष ने घोषणा की कि वे हौटेंग में ' हिन्दी आइस्टेडफोड' शुरू करना चाहते हैं| हमने सफलता पूर्वक इसका आयोजन किया। हिन्दी शिक्षा संघ ने शीघ्र ही हौटेंग को अपनी एक शाखा घोषित कर दिया और मुझे तथा हीरालाल शिवनाथ दोनों को क्षेत्रीय निदेशक बना दिया गया | हम प्रतिभागियों को प्रोत्साहित करना चाहते हैं और इसीलिए डरबन के 'आइस्टेडफोड' इस्तेडफोड' से अलग हम अपने नियमों में अधिक उदार हैं| हमें इसमे कोई आपत्ति नहीं है यदि छात्र देवनागरी नहीं पढ़ पाते हैं और रोमन में लिखित हिन्दी को ठीक-ठीक पढ़ लेते हैं| अंततः जो उनके मुख से निकल कर आ रहा है वह तो हिन्दी है| हमारे हिन्दी आन्दोलन का शुभ परिणाम हौटेंग में दिखाई दे रहा है| इस वार्षिक आयोजन के माध्यम से अनेक लोगों को हिन्दी सीखने की प्रेरणा मिली है| मेरी एक छात्र ने हिन्दी कक्षाएं प्रारंभ की| पहले साल में उनके पास १६ छात्र थे| उन्होंने अपने हिन्दी स्कूल का नाम रखा 'चमकते सितारे हिन्दी पाठशाला'| हिन्दी शिक्षा संघ की हीरक जयंती के अवसर पर हमने हिन्दी सेवियों का सम्मान करने के लिए 'हिन्दी सम्मान' प्रारंभ करने की योजना बनाई| हमें चाहिए कि हम छात्रों, अभिभावकों और आध्यापकों के हिंदी प्रचार-प्रसार के प्रयत्न का सम्मान करें|
दक्षिण अफ्रीका में हिन्दी के भविष्य को आप किस रूप में देखते हैं ?
मुझे लगता है कि दक्षिण अफ्रीका में हिन्दी का एक उज्जवल भविष्य है| आप देखेंगे कि दक्षिण अफ्रीकी समाज अब उस बिंदु पर पहुँच चुका है जहाँ हर समुदाय अपनी ज़रूरतों, भाषा और संस्कृति के प्रचार प्रसार में पूरी तरह से लगा हुआ है| हमारे हिन्दी भाषा-भाषी लोग ही सबसे आलसी हैं जो अपनी धरोहर की सुरक्षा और सम्मान में ही रुचि नहीं ले रहे| पर ख़ास बात यह है कि अब हम यह महसूस करने लगे हैं| जो हमारे नौजवान दूसरी भाषाओं और संस्कृति वालों के संपर्क में आते हैं तो उन्हें अब लगता है कि उन्हें भी अपनी संस्कृति और भाषा के बारे में जानना चाहिए| कुछ तो बोलीवुड के लिए हिन्दी सीखना चाहते हैं तो कुछ आध्यात्मिक हिन्दू संस्कारों और रीति रिवाजों के लिए जानना चाहते हैं| हमारे गैर भारतीय छात्रों में दो ऐसे छात्र भी थे जो यूनिवर्सिटी ऑफ़ विटवाटर्सरैंड में पढ़ाते थे|
दक्षिण अफ्रीका में हिन्दी प्रचार प्रसार के लिए भारत किस प्रकार आपका सहयोग कर सकता है ?
भारतीय उच्चायोग और कान्सलेट का हमें निरन्तर पूरा सहयोग मिलता रहा है| फिर भी हमें लगता है कि वे हमें और अधिक सहयोग दे सकते हैं| उन्हें कुछ आर्थिक सहयोग भी करना चाहिए| जो कार्य हम कर रहे हैं उसमे उनका हमें कोई आर्थिक सहयोग नहीं है| वे हमें पुस्तकें देते हैं, प्रमाण पत्र देते हैं, बड़े समारोहों में बुलाते हैं, हमारे कार्य की प्रशंसा भी करते हैं, पर वे हमें हिन्दी कक्षाओं के चलाने के लिए और उनमे सुधार करने के लिए कोई राशि नहीं देते हैं| उनका यह आर्थिक सहयोग हमें हिन्दी कक्षा ठीक से चलाने में हमारी बहुत मदद कर सकता है| हमें आर्थिक सहयोग की आवश्यकता है|
आप अपने हिन्दी के सम्बन्ध को कैसे पारिभाषित करना चाहेंगे ?
मैं आपको क्या बताऊं, हिन्दी के मैं अलावा कुछ सोचता ही नहीं हूं। मैं महसूस करता हूँ कि समाज में हिंदी को सब तक पहुंचाना या कहिये समाज के हर व्यक्ति को हिंदी से जोड़ना कितना कठिन है| हम उन्हें अकादमिक हिन्दी सिखा सकते हैं, हम उन्हें हिन्दी पढ़ना और लिखना सिखा सकते हैं, फिल्मों और कहानियों का आनंद लेना सिखा सकते हैं पर वे सहज और प्रभावशाली रूप में हिन्दी बोल सकें, यह अलग स्तर की ही शिक्षा है| कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि अपने लोगों के लिए डॉ. विमलेश कान्ति वर्मा की 'लर्नर्स हिन्दी -इंग्लिश थिमैटिक विज़ुअल डिक्शनरी' की तरह एक कोश बनाऊँ| वह हमारी बहुत मदद करेगा| मैं चाहता हूँ कि हिन्दी मेरी प्रथम भाषा हो| हमें एक ऐसी योजना एक ऐसी कार्य रूपरेखा, ऐसी पद्धति खोजनी होगी जो हमें उस स्तर तक पहुंचा सके|