Sep 2010 - Kadambini

Soch nahin sakta Hindi se alag hoon/ I Cannot Imagine Being Away from Hindi

स्कूल की पढ़ाई ख़त्म करने के बाद 1977 में पीटर फ़्राइडलैंडर विश्व भ्रमण पर निकले और भारत पहुंचे। भारत इतना भाया कि वे 1982 तक यहीं रहे। वाराणसी में हिन्दी सीखी और पीएच.डी. करने के बाद उन्होंने इंग्लैड, ऑस्ट्रेलिया, सिंगापुर के विश्व विद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई। सुनन्दा वर्मा ने एक खास बातचीत में उनके हिन्दी प्रेम को समझा और विदेश में हिन्दी पढ़ाने पर उनकी राय जानी।

हिन्दी के साथ आपका गहरा लगाव है उसको कैसे पारिभाषित करना चाहेंगे?

बहुत गहरा रिश्ता हो गया है। अब मैं सोच नहीं सकता कि मैं हिन्दी से अलग हूं। आपको एक किस्सा बताता हूं। जब मैं भारत में हिन्दी सीख रहा था तो दो तीन साल के बाद मैं इंग्लैंड जाने वाला था, तो सपने में मैंने देखा कि मेरे बड़े भाई मुझसे मिलने आए हवाई अड्डे पर और उन्होंने मुझसे कहा, ‘अरे भाई, लौट आए!’ तो मैंने सोचा कि मेरे भाई तो हिंदी जानते नहीं,

वे कैसे हिन्दी बोल रहे हैं?

लगता है कि हिन्दी मेरे अवचेतन में बस गई है।कब और कैसे आपका हिन्दी से परिचय हुआ?उन दिनों मैं चित्रकारी करता था, कहीं भी रास्ते में बैठ कर तस्वीरें बनाता था। हमेशा लोग मुझसे पूछते थे कि, ‘आप क्या कर रहे हैं, किसकी तस्वीर बना रहे हैं?’ सवाल या तो वे हिन्दी में करते या किसी और भारतीय भाषा में। उससे मुझमें एक जिज्ञासा जगी कि मैं उन लोगों के साथ हिन्दी में बात कर सकूं, उन्हीं से सीख सकूं कि मैं किस चीज़ की तस्वीर बना रहा हूं। क्योंकि मैं तो खुद ही नहीं जानता था कि मैं किस चीज़ का चित्र बना रहा हूं, उसका क्या इतिहास है, वह क्या है।

आपने हिन्दी कैसे सीखी?

सबसे पहले बाज़ार से मैने एक किताब ली। किताब तो ले ली लेकिन उस किताब में स्पोर्ट्स सेक्शन में पहला वाक्य था, ‘मैं बाघ का शिकार करना चाहता हूं।‘ तब मुझे ज्ञान हुआ कि वह लेटेस्ट किताब नहीं थी, बहुत पुरानी थी। मुझे याद भी है कि मैं उस किताब को लेकर कनॉट प्लेस में बैठता था। उस ज़माने में कनॉट प्लेस में, बीच में मालिश करने वाले लोग बहुत बैठते थे और विदेशियों को बहुत तंग करते थे। लेकिन मैं तो उन लोगों को बहुत तंग करता था। अपनी ये किताब दिखाता था और उनसे आग्रह करता कि इसको सुनाइए, उसको सुनाइए, ये कैसे बोलें, वह कैसे बोलें। दो चार महीने के बाद मुझे लगने लगा कि किताब से सीखने से काम नहीं चलेगा। बनारस में एक दिन मैं किसी सज्जन के साथ चाय पी रहा था, तो मैंने उनसे कहा कि मैं हिन्दी सीखना चाहता हूं। तो उन्होंने कहा क्यों ना आप मुझसे हिन्दी सीखें और आप मेरे लिए अंग्रेज़ी सिखाएं। उनका नाम कृष्ण मोहन गुप्त था और उनकी एक संस्था थी, महर्षि विप्रगुप्ता इन्स्टिट्यूट ऑफ़ स्पोकन इंगलिश। तो मैं शाम को लगभग डेढ़ घंटे अंग्रेज़ी सिखाता था और फिर डेढ़ घंटे तक उनसे हिन्दी सीखता था।

हिन्दी सीखने में आपको किस तरह की दिक्कत हुई और उनसे आप कैसे निबटे?

बहुत कुछ याद करना था- शब्दावली, व्याकरण, प्रयोग और सब कुछ एक साथ सीखना था। लेकिन मेरा सौभाग्य था कि एक योग्य शिक्षक मिले। दूसरी बात थी कि जानबूझ कर मैं ऐसे परिवार के साथ किराये पर रहा जो अंग्रेज़ी भाषी नहीं था, ताकि मुझे चौबीसों घंटे हिन्दी में बातचीत करनी हो। मैंने अपना सारा समय हिन्दी भाषियों के साथ बिताया।

हिन्दी पढ़ाने में आपके सामने क्या चुनौतिया रहती हैं?

मुझे याद है कि जब मैं सोआस में पढ़ने लगा तो मेरे अध्यापक और बाद में दोस्त श्री रामदास गुप्ता ने मेरे लिखित काम को देखकर कहा कि, ‘आपको मालूम नहीं कि ‘कि’ और ‘की’ की वर्तनी अलग है?’ ये मेरे लिए एक समस्या थी कि मैंने भारत में ज़्यादा हिन्दी सुनने से सीखी, लिखित हिन्दी पढ़ने से नहीं। लेकिन मौखिक रूप से हिन्दी सीखने में जो मज़ा आया वह अमूल्य था।

फिर, मैं मूल रूप से हिन्दी भाषी नहीं हूं तो लोग अक्सर प्रश्न पूछते हैं जिसका जवाब मैं नहीं जानता। तो लोग जब मुझसे प्रश्न करते हैं तो मैं किसी और से पूछता हूं जो हिन्दी भाषी है। लेकिन अहिन्दी भाषी होने के नाते एक अच्छाई है कि मैं खुद ही एक उदाहरण हूं कि ये हो सकता है कि एक अहिन्दी भाषी हिन्दी सीख सके।

2007 में आपने नैशनल युनिवर्सिटी ऑफ़ सिंगापुर में हिन्दी विभाग की स्थापना की, वहां आपको एक्सेलैंस ऑफ़ टीचिंग अवॉर्ड मिला सिंगापुर के अनुभव बताइए।

सिंगापुर में प्रोफेसर चैन जो सेंटर ऑफ़ लैंगुएज के अध्यक्ष हैं और साथ काम करने वाली संध्या सिंह और साधना पाठक ने बहुत सहयोग दिया। विद्यार्थियों में कुछ चीनी भाषी, कुछ मलय भाषी और ज़्यादातर तमिल या मलयालम भाषी थे। एक ज़माना था जब तमिल लोगों के मन में हिन्दी के प्रति एक तरह का शक, शायद घृणा थी, लेकिन सिंगापुर के नौजवानों में इस तरह की भावना बिल्कुल नहीं हैं। उनके मन में वर्तमान भारत की समकालीन भाषा हिन्दी है। टीवी का माध्यम हिन्दी है, और सबसे बड़ी बात यह है कि वे भी बॉलिवुड की फिल्मों के पीछे हैं।

मैंने पढ़ाने की सामग्री खुद तैयार की, संयोजन किया, प्रयोजन किया और छात्रों से बातचीत की। हम लोग चाहते हैं कि हम कम बोलें और छात्र ज़्यादा। तो कुछ सृजनात्मक खेल बनाए जिसमें विद्यार्थियों की रुचि हो। जैसे- मैंने विद्यार्थियों को दल में बांटा और कहा कि फिल्म के लिए एक सीन की स्कृप्ट बनाइए ताकि फिर हम उसकी शूटिंग करें। इस सब के बारे में हम कैसे बात करें, नायक कौन होगा, खलनायक कौन होगा, कहानी क्या होगी पर चर्चा हुई। विद्यार्थियों ने इसमें बहुत दिलचस्पी दिखाई और बहुत सीखा।

विदेश में लोग हिन्दी क्यों सीखना चाहते हैं?

जब मैंने अमेरिकियों को पढ़ाया तो पाया कि ज़्यादातर सीखने के कारण धार्मिक थे, कुछ दोस्त बनाना चाहते थे और कुछ लोग आध्यात्मिक कारणों से भी सीखते थे। ऑस्ट्रेलिया में लगभग एक तिहाई लोग ऐसे हैं जो भारतीय मूल के हैं और अपनी धरोहर और संस्कृति के बारे में ज़्यादा समझना और सीखना चाहते हैं। एक तिहाई ऐसे लोग हैं जो किसी भारतीय से शादी करना चाहते हैं, या रिश्ते जोड़ने वाले हैं। और जो बाकी एक तिहाई है उसमें कोई धार्मिक वजहों से सीखना चाहता है, कुछ कला में रुचि रखने वाले हैं और कुछ खास क्षेत्र जैसे मेडिकल, डेवेलपमेंट सेक्टर या रिसर्च से संबंधित हैं। सिंगापुर में मैंने पाया कि विद्यार्थियों की इच्छा उत्तर भारतीय संस्कृति को जानने की ज़्यादा है। बॉलिवुड भी बड़ा आकर्षण है।

आपकी राय में हिन्दी को कैसे पढ़ाया और बढ़ाया जा सकता है?

वह ज़माना नहीं रहा जब हम साहित्य के बल पर लोगों के मन में रुचि जगा सकें। हमें आजकल की जनसंस्कृति अपनानी चाहिए। लोगों को आकर्षित करने के लिए बॉलिवुड बहुत अच्छा खिलौना है। उसे आधार बनाकर हिन्दी सिखानी चाहिए। आगे चल के अखबार और ब्रॉडकास्ट टीवी भी दिलचस्प विषय है। मैं ऐसा भी नहीं कहना चाहता कि उसमें साहित्य की कोई भूमिका या भाग नहीं है। दूसरे-तीसरे साल में आपको कहानियां, कविताएं पढ़नी चाहिए। सब की अलग जगह है। लेकिन सामने अगर वह दिखाया जाए जो सबसे आकर्षक है तो लोग अंदर आएंगे और फिर उन्हें वह दिखाना चाहिए जो असली चीज़ है और मतलब की है।