बेबाक मन की बात
प्रवासी भारतीय साहित्य के विशेषज्ञ व लब्धप्रतिष्ठ भाषा वैज्ञानिक डॉ. विमलेश कान्ति वर्मा की सुनन्दा वर्मा से अन्तरंग बातचीत
चकाचौंध से दूर, चुपचाप, निरंतर काम में जुटे डॉ. विमलेश कान्ति वर्मा, प्रवासी भारतीय साहित्य का परिचय भारतीय पाठकों से करा रहे हैं। प्रवासी भारतीय साहित्य से उनका परिचय पहली बार तब हुआ जब भारतीय उच्चायोग, सूवा, फ़ीजी में उन्होंने प्रथम सचिव शिक्षा व हिन्दी के रूप में कार्यभार सँभाला। प्रवासी साहित्य में रुचि उन्हें दुनिया के कई कोने ले गई। सूरीनाम, ट्रिनिडाड और टुबेगो, मॉरिशस और दक्षिण अफ़्रीका के प्रवासी साहित्य पर उन्होंने शोध किया और पाँच महत्वपूर्ण किताबे लिखीं। डॉ वर्मा से इस ख़ास बातचीत के दौरान यह स्पष्ट हो जाता है कि ‘वसुधैवकुटुंबकम’ का दृष्टिकोण उनके व्यक्तित्व का हिस्सा है। यही वजह है कि हिन्दी और हिन्दी के हर रूप में लिखने वाले लेखकों और कवियों को वह प्रेरित करते हैं और बिना किसी संकोच या झिझक, अपने मन की बात लिखने का उत्साह दिलाते हैं।
प्रवासी भारतीय साहित्य में आपका रुझान कैसे हुआ?
बात 1984 की है जब मैंने सूवा, फ़ीजी के भारतीय उच्चायोग में प्रथम सचिव शिक्षा और हिन्दी का कार्यभार सँभाला। फ़ीजी पहुंचने के पहले मैंने वहां के बारे में कुछ पुस्तकें तो पढ़ी थीं लेकिन मुझे इसका ज्ञान बिल्कुल भी नहीं था कि उनकी अपनी एक विकसित की हुई हिन्दी की अलग भाषिक शैली है। इसका अनुभव तो मैंने तभी किया जब मंत्रालय के अधिकारियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, धार्मिक नेताओं, शिक्षाविदों और भारत प्रेमियों से मेरी बातचीत शुरू हुई। मैंने देखा कि मुझ से तो वे अंग्रेज़ी में बातचीत करते हैं लेकिन जब आपस में बात करते हैं तो वे एक ऐसी भाषा में बोलते हैं जिसमें अवधी के शब्द हैं, भोजपुरी के है, खड़ी बोली के भी शब्द हैं। मैं अवध प्रदेश का हूं, एक दिन मैंने भी उनसे अवधी में बात शुरू करी। भाषा, संस्कृतियों को जोड़ती है। उनकी आंखों में चमक आ गई। मैं उन्हें अपना लगने लगा। उसके बाद वे मुझसे अपनी हिन्दी, ‘फ़ीजीबात’ में ही बात करने लगे। इन्होंने हिन्दी जन समाज के माध्यम से सीखी थी। फ़ीजीबात में अवधी , भोजपुरी, खड़ीबोली, उन सभी जगहों की भाषा है जहां से 1879 से लोग फ़ीजी काम करने आए थे । ‘फ़ीजी हिन्दी’ या ‘फीजीबात’ में अंग्रेंज़ी और काइवीती (फ़ीजी की अपनी भाषा) के भी शब्द हैं। मैं एक भाषा वैज्ञानिक हूं, मैं इस भाषा के बारे में और जानना चाहता था। फ़ीजी हिंदी में लेख, कविताएं, कहानियां लिखने वालों से मैं मिला। फ़ीजी हिन्दी के पत्रकारों और रेड़ियो पर
कार्यक्रम करने वालों से भी मिलना हुआ। ‘शान्तिदूत’ वहां का साप्ताहिक हिन्दी अख़बार है। उसका फ़ीजी हिन्दी में लिखा स्तंभ ‘थोरा हमरो भी तो सुनो’ पूरे पैसिफ़िक में लोकप्रिय था।
मैं अब सूरीनाम, मॉरिशस, ट्रिनिडाड, दक्षिण अफ्रीका- उन सभी देशों में विकसित हुई शैली को जानने के लिए उत्सुक था जहां कई वर्ष पूर्व भारत से लोग गिरमिटिया के रूप में पहुंचे थे। जब मैं सूरीनाम गया तो देखा कि उन्होंने अपनी हिन्दी, सरनामी को, अवधी के आधार पर विकसित किया है। सूरीनाम में डच और स्रानन टोंगो, सूरीनाम की मूल भाषा के शब्द भी हैं। मॉरिशस ने फ़्रेंच के साथ हिन्दी विकसित की और दक्षिण अफ़्रीका ने अपनी हिन्दी को नैताली नाम दिया। इन सभी देशों में मैंने भारत और हिन्दी के लिए उत्साह और अनुराग देखा। हिन्दी के ये रूप सुनने में कुछ अलग लगते हैं क्योंकि इन सब में उन देशों की संस्कृति भी जुड़ी है, लेकिन हिन्दी का मूलत: ढांचा एक ही है।
आपने इन्हीं देशों के हिन्दी प्रवासी भारतीय साहित्य पर क्यों काम किया ?
फ़ीजी, सूरीनाम, मॉरिशस, ट्रिनीडाड और दक्षिण अफ़्रीका के प्रवासी साहित्य में मुझे ऐसी निधि मिली जो भारत में अनछुई सी थी। विदेशियों ने इन भाषा शैलियों पर कोश बनाये, इनके व्याकरण भी लिखे लेकिन भारत में ये अनदेखे ही रहे। कुछ हिन्दी वालों का मानना था कि हिन्दी की ये शैलियां अवैज्ञानिक है, अशुद्ध हैं, इनमें व्याकरण के दोष हैं। कुछ भारत स्थित हिन्दी विद्वानों ने इनका मज़ाक भी उड़ाया।
मेरी राय अलग थी। ये समझना ज़रूरी है कि भाषा का काम संप्रेषण है। जिस भाषा से हम अपनी बात एक दूसरे को समझा सकते हैं, धीरे धीरे वह व्याकरणिक हो जाती है। वही भाषा मान्य हो जाती है। हमें ये भी याद रखना चाहिए कि जिस तरह बंबइया हिन्दी (मुंबई में विकसित हुई हिन्दी) और हैदराबादी हिन्दी (हैदराबाद में विकसित हुई हिन्दी) हैं, उसी तरह फ़ीजी बात, सरनामी और नैताली भी हिन्दी के रूप हैं। फ़र्क है तो सिर्फ़ यही कि ये भारत के बाहर विकसित हुईं। हमें इन सब भाषाओं को मान देना चाहिए और अध्ययन करना चाहिए। इन भाषाओं को नज़रअंदाज़ करना संस्कृति को नज़रअंदाज़ करना है।
इन देशों के कई लेखक भारत कभी नहीं आए, लेकिन वे भारत से जुड़े हुए हैं। वे यहां के भारतीयों से अपना एक भावनात्मक संबंध मानते हैं। उन्होंने वहां ‘रामचरितमानस’ को आज दो सौ वर्षों के बाद भी जीवित रखा है, उनकी चौपाइयां वे बड़े भाव विभोर हो कर गाते हैं। हर गांव में रामायण मंडली है। ये बात सिर्फ़ फीजी की ही नहीं है, सूरिनाम में भी ऐसा है, मॉरिशस में भी ऐसा ही है, दक्षिण अफ़्रीका में भी ऐसा ही है। यह इस बात का प्रमाण है कि उन्होंने जीवन मूल्यों के लिए तुलसी की ‘रामचरितमानस’ कृति को चुना, सुख दुःख में वह उनका साथ देती है। रामचरितमानस, सूरसागर, कबीर सब उनके क़रीब हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी वे इनको पढ़ते आए हैं। सदियों उन्होंने हिन्दी को संजोया है। हिन्दी उनके लिए ज़रूरी नहीं है पर हिन्दी उनके लिए वह पूंजी है जो उनके पूर्वज लाए थे। इन देशों के प्रवासी साहित्य में ये भाव और लगाव झलकता है। ये साहित्य, भाषा और समाज, दोनों को समझने के लिए महत्वपूर्ण है।
प्रवासी भारतीय साहित्य के अध्ययन का क्या महत्व है ?
अगर आप समाज को समझना चाहते हैं तो उसके साहित्य का अध्ययन ज़रूरी है। साहित्यिक दस्तावेज़ समाज, उसकी सोच, भावनाओं, चुनौतियों, महत्वकांक्षाओ, प्रगति और विकास को दर्शाता है। लोकगीत मौखिक दस्तावेज़ हैं। यह दोनों समाज के दर्पण हैं और उनकी अभिव्यक्ति का, उनकी भावनाओं का भंडार हैं। अगर हम प्रवासी भारतीयों से जुड़ना चाहते हैं, तो हमें उनके साहित्य को पढ़ना होगा, समझना होगा, सराहना होगा और भारतीय साहित्य के साथ बराबर की जगह उसे देनी होगी। जब हम प्रवासी भारतीयों को संबोधित करते हैं तो हम उनसे कुछ न कुछ मांगते हैं- निवेश की बात हो या कुछ और। हमें ये सोचना चाहिए कि हम उन्हें देते क्या हैं। मुझे लगता है कि यदि उनके लिखे साहित्य को हम प्रकाशित करें, प्रचारित करें, उनका मूल्यांकन करें तो अच्छा होगा।
आपने हिन्दी की रचनाओं पर ही क्यों काम किया ?
मुझे ऐसा लगता है कि व्यक्ति अपनी भाषा में अपनी बातों को सबसे अच्छी तरह कह सकता है। जो भाषा उसने सीखी है, जो उसकी अपनी नहीं है, उसमें वो अपने मन की बात उतने अच्छे ढंग से नहीं कह पाता है। यही कारण है कि फीजी में ही नहीं, चाहे वह सूरिनाम हो, मॉरिशस हो चाहे दक्षिण अफ़्रीका हो सब जगह के प्रवासी भारतीय जो अपनी विकसित की हुई शैली में लिखते हैं, वह अधिक मन को छूती है, उसमें अपनापन होता है। यही कारण है कि जब फ़ीजी के डॉ सुब्रमणी ने अपना उपन्यास ‘डउका पुरान ’ फीजी हिन्दी में लिखा तो सारे फीजी में ही नहीं, हर जगह जहां भी भारतीय रहते थे, चाहे वो हॉलैंड के हों, चाहे न्यूज़ीलैंड के हों या वहां से दूर बसे फ़ीजी के भारतीय हों, उनको वह अपना लगा। यही बात सरनामी में लिखने वाले हरदेव सहतू, डॉ जीत नारायण और हरिदत्त लक्षमन की कविताओं के साथ हुआ।
इस विषय पर आपके पाँच महत्वपूर्ण ग्रंथ हैं। उनके बारे में बताएं।
भारत में प्रारंभ में जब मैंने फ़ीजी का काम शुरु किया तो मैंने पहले अपने फ़ीजी संबंधी अनुसंधान परक लेखों को पत्रिकाओ में प्रकाशित कराना शुरु किया जिससे लोगों में उसके बारे में थोड़ी जानकारी हो । कई वर्षों तक वह काम चलता रहा। भारत आने के 13 वर्ष बाद मेरी पुस्तक, ‘फ़ीजी में हिन्दी -स्वरूप और विकास’ प्रकाशित हुई। ये किताब फ़ीजी में हिन्दी के स्वरूप और स्थिति का विस्तार से विवेचन है। इसके 12 वर्ष बाद साहित्य अकादमी ने मेरा फ़ीजी के हिन्दी साहित्य का एक संचयन प्रकाशित किया। इस संकलन का नाम रखा गया ‘फीजी का सृजनात्मक हिन्दी साहित्य’| उसके प्रकाशन से फ़ीजी के अनेक लेखकों का परिचय भारतीय हिन्दी जगत से हुआ। इसी तरह ‘सूरिनाम का सृजनात्मक हिन्दी साहित्य’ , और ‘मॉरिशस का सृजनात्मक हिन्दी साहित्य’ संचयन प्रकाशित हुए । हर देश के लिए मैंने उस देश के एक विशेषज्ञ का सहयोग लिया। इनके प्रयत्न और सहयोग से वहां के लेखकों की मैं सहमति प्राप्त कर सका और चयन का काम हुआ। मुझे फिर लगा कि अलग अलग देश की रचनाएं तो प्रकाशित हो गईं, लेकिन एक ऐसे समूचे संकलन की आवश्यकता है जिसमें इन सारे देशों की रचनाओं का संकलन हो। फिर भारतीय ज्ञानपीठ ने महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय के सहयोग से मेरा एक बड़ा
संकलन, प्रवासी भारतीय हिन्दी साहित्य प्रकाशित किया। इसमें फीजी, सूरीनाम, मॉरिशस, दक्षिण अफ़्रीका की रचनाएं हैं। इस संचयन में सह सम्पादक धीरा वर्मा, भावना सक्सेना, सुनंदा वी अस्थाना और डॉ. अलका धनपत हैं जिन्होंने फीजी, सूरीनाम, दक्षिण अफ्रीका तथा मारीशस के साहित्य संचयन में बड़ी प्रतिबद्धता और श्रम से मेरा सहयोग किया है| और इस प्रकार ‘प्रवासी भारतीय हिन्दी साहित्य’ ग्रन्थ भारत से बहुत दूर विभिन्न देशों में बसे हुए इन प्रवासी भारतीयों के सर्जनात्मक हिन्दी लेखन का समेकित,प्रामाणिक और शोधपरक दस्तावेज़ बन गया है |
प्रवासी भारतीयों के साथ संबंध मज़बूत करने के लिए क्या किया जा सकता है?
सांस्कृतिक राजनय, दो मित्र देशों के मध्य कूटनीतिक संबंधों को सुदृढ़ करने में सबसे अधिक प्रभावकारी परोक्ष माध्यम है | मैंने अपने काम के ज़रिए प्रवासी भारतीय हिन्दी लेखकों का परिचय भारत के पाठकों से कराया है। इन किताबों को पढ़ने से व्यक्ति की सोच का दायरा बढ़ता है। उसे यह समझ में आता है कि हिन्दी में साहित्यिक लेखन केवल अपने ही देश में नहीं, हिन्दी प्रदेश में ही नहीं, विश्व में अनेक जगह भारतीयों द्वारा हो रहा है और यह अनेक रूप में हो रहा है- कहानी, कविता, निबंध, आलोचना, संस्मरण के रूप में, हर विधा में हो रहा है। जब हम एक दूसरे के दृष्टिकोण को समझते हैं तो हमारे संबंध अधिक गहरे होते हैं, सच्चे होते हैं। मुझे लगता है कि प्रवासी भारतीय हिन्दी साहित्य का प्रवेश विश्वविद्यालय के हिन्दी पाठ्यक्रमों में होना चाहिए। जैसे हिन्दी का साहित्य केवल हिन्दी क्षेत्र का साहित्य नहीं है, वह भारत में जो अन्य प्रदेश हैं वहां पर जो हिन्दी में लिखा जा रहा है वह भी उसके अंतरगत आता है, इसी तरह जो विदेशी भूमि पर हिन्दी में लिखा हुआ साहित्य है वह भी हिन्दी साहित्य है। हिन्दी की विश्व में एक बहुत बड़ी भूमिका है, और ये भूमिका, इसकी प्रतिष्ठा वहां बसे प्रवासी भारतीयों ने सबसे अधिक की है। इसलिए उनके साहित्य का संकलन हो, उनके साहित्य का विवेचन हो, उसका मूल्यांकन हो और उनको अपनी भाषा में साहित्य लिखने के लिए हम प्रोत्साहित करें जिससे वे अधिक से अधिक अपनी हिन्दी में लिख सकें।
मुझे तो लगता है कि हिन्दी में जो कुछ देश विदेश में लिखा जा रहा है वह सब हिन्दी को और अधिक संपन्न बनाने वाला है, हिन्दी की शक्ति को बढ़ाने वाला है और हिन्दी के माध्यम से विश्व के अनेक देशों से भारत के संबंध को सुदृढ़ करने वाला है। यह राजनीतिक दृष्टि से, सांस्कृतिक दृष्टि से और कूटनीतिक दृष्टि से भारत के लिए बहुत मूल्यवान है। एक दूसरे को समझने की इच्छा और प्रयास, दोनों ज़रूरी है।
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[डॉ. विमलेश कान्ति वर्मा (जन्म १९४३, इलाहाबाद) लब्धप्रतिष्ठ भाषावैज्ञानिक, दिल्ली विश्वविद्यालय में पांच दशकों से भी अधिक समय से अनुप्रयुक्त भाषा विज्ञान का अध्यापन, विदेश में टोरंटो विश्वविद्यालय कनाडा, सोफ़िया विश्वविद्यालय, सोफ़िया, बल्गारिया तथा यूनीवर्सिटी ऑफ़ साउथ पेसिफिक विश्वविद्यालय, सूवा, फीजी में हिन्दी भाषा और साहित्य का अध्यापन, फीजी स्थित भारतीय हाई कमीशन में वरिष्ठ राजनयिक के रूप में प्रथम सचिव (हिन्दी और शिक्षा) के पद पर हिन्दी की सेवा; विदेशी भाषा के रूप में हिन्दी शिक्षण, कोश विज्ञान , अनुवाद तथा प्रवासी भारतीय साहित्य में विशेष रूचि, भारत के राष्ट्रपति द्वारा प्रदत्त महापंडित राहुल सांकृत्यायन सम्मान तथा उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा प्रदत्त हिन्दी विदेश प्रसार सम्मान तथा बल्गारिया सरकार द्वारा दो बार राष्ट्रीय सम्मान ‘१३०० बल्गारिया’ तथा ‘ज्लाताना लावारोवा क्लोंका’ सम्मानों से सम्मानित |
[सुनंदा वर्मा अंग्रेज़ी में एम.ए. हैं और वरिष्ठ मीडिया कर्मी हैं| भारत में वे टीवी न्यूज़ की प्राइम टाइम प्रड्यूसर रही हैं | वे हिंदी से अंग्रेज़ी में अनुवाद करती हैं, सिंगापुर में रहती हैं और भारतीय प्रेरक प्रसंगों को आधार बना कर स्वतंत्र रचनात्मक लेखन करती हैं। उनकी अनेक प्रकाशित पुस्तकें हैं जिनमे ‘लर्नर्स हिन्दी इंग्लिश थीमेटिक विजुअल डिक्शनरी’ चर्चित कोश ग्रन्थ है |]