“गिरमिट गीत प्रवासी हिन्दी साहित्य की अनुपम निधि हैं”- धीरा वर्मा
श्रीमती धीरा वर्मा जब मंच से फ़ीजीपहुंचे बंधुआ मज़दूरों की व्यथा गिरमिटियों के लिखे गीतों को गाकर सुनाती हैं तो सभागार में उपस्थित लोगों का गला भर आता है, आंखों में आंसू छलक जाते हैं। आलीशान सभागार में बैठे श्रोता, गिरमिटियों की “छः फुट लम्बी चार फुट चौड़ी कोठरिया”में पहुंच जाते हैं और उन्हीं की पीड़ा का अनुभव करते हैं।
प्रवासी भारतीय लोकगीतों से धीरा वर्मा का परिचय सबसे पहले फ़ीजी में हुआ। वहां तीन साल रहने के बाद उन्होंने प्रवासी भारतीय लोकगीतों को शोध का विषय बनाया और फ़ीजी के साथ प्रवासी भारतीयों वाले अन्य देश जैसे सूरीनाम, मॉरीशस, दक्षिण अफ़्रीका के लोकगीतों पर भी काम किया। धीरा वर्मा गिरमिट गीत को प्रवासी हिन्दी साहित्य की अनुपम निधि मानती हैं। वह कहती हैं कि प्रवासी भारतीय लोकगीतों का साहित्यिक महत्त्व तो है ही साथ ही ऐतिहासिक, समाजशास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक महत्व भी है। प्रस्तुत है धीरा वर्मा की वरिष्ठ पत्रकार सुनन्दा वर्मा से अंतरंग बातचीत।
लोकसंगीत और लोक साहित्य से आपका पहला जुड़ाव कब हुआ?
बचपन से ही मैं संगीत के माहौल में पली बढ़ी| माता पिता संगीत प्रेमी थे, सभी भाई बहन संगीत की विविध विधाएं सीखते थे| वे अलग-अलग वाद्य बजाते थे| ऐसे में संगीत के प्रति लगाव स्वाभाविक ही था| हमलोगों का घर परिवार बहुत बड़ा था| समय-समय पर शुभ अवसर आते-बच्चों का जन्म, मुंडन, शादी-ब्याह आदि जिनमें संस्कार गीत गाये जाते हैं| ये सभी संस्कार संबंधी गीत लोकगीत ही हैं| सावन व होली आदि मौकों पर भी लोकगीत ही गाये जाते हैं| घर में कोई भी काम करने वाली सहायिका आती तो भी हम सब उनसे उनके गाँव के गीत सुनते| मालिश करने वाली से मालिश कराते-कराते हम उनके गाँव की बातें और वहां के गीत सुनते जाते| तरह-तरह के पारंपरिक लोकगीत, ऋतुगीत, परिवार में आपसी नोक झोक के गीत सुनकर मानों उन्हीं के गाँव हम पहुंच जाते थे| गाँव का प्राकृतिक सौन्दर्य, बड़े लहलहाते खेत, वहां की माटी की सुगंध हमारे दिल दिमाग में छा जाती| होली आने पर हमारे घर के आस-पास ये औरतें अपनी सहेलियों सहित हमारे घर के आँगन में ढोलक मंजीरे ले कर आ जातीं और घंटों होली के गीत और फिर हँसी मजाक के गीत गातीं| फिर उन सबका खान - पान होता| हम लोगों के बीच भाषा की कोई कठिनाई नहीं थी| हम लोग उत्तरप्रदेश की प्रयाग नगरी में रहते थे। इन लोगों के गीत प्रायः अवधी भाषा में होते और बड़ी आसानी से समझ भी आ जाते थे| इनके गाये गीत हम लोगों को याद हो जाते थे| इन गीतों में बहुत अच्छे भाव होते और वे क्षेत्र के साहित्य और वहां की संस्कृति को भी दर्शाते| कुछ गीत राम के जन्म से लेकर बनवास तक के होते, कुछ कृष्ण की विभिन्न लीलाओं पर, कुछ देवी महिमा पर आधारित, तो कुछ पारिवारिक संबंधों को लेकर अपनी संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते थे| ये गीत आज भी मन में बसे हुए हैं|
आपकी रुचि लोकगीतों और लोक संगीत में कैसे बढ़ी?
मेरी लोकगीतों में रुचि की शुरुआत यहीं से हुई| लोकगीत जनमानस के गीत हैं, मानव मन की अभिव्यक्ति है| वे बड़ी ही सरल और सीधी क्षेत्रीय भाषा में होते हैं और सभी को आसानी से समझ आ जाते हैं| इनकी धुन भी सरल होती है| मानव के जीवन में बहुत सी बाते ऐसी होती हैं जिसे वह किसी से भी खुलकर कह नहीं पाता है, उन्हीं बातों को बहुत ही सरल सहज भाव से गीतों में वह व्यक्त कर लेता है, कभी हास परिहास में तो कभी गंभीर भाव में| लोकगीतों की मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि मेरे लिए सदा से आकर्षण का कारण रही है| मूल रूप से मैं मनोविज्ञान के क्षेत्र की हूँ और हर भावात्मक अभिव्यक्ति की पृष्ठभूमि मुझे मनोविज्ञान से जुड़ी दिखती है| जैसे पारस्परिक सम्बन्ध के गीत है| उनके पीछे एक नारी मनोविज्ञान है जो उसको जीवंत बनाता है| एक छोटा सा उदाहरण आपको देती हूँ| सावन का एक गीत जिसमें रिश्तों की अहमियत बताई गई है -
निमिया तले डोला धर दे मुसाफिर,आई सावन की बहार रे |
कौन कहे बेटी नित उठिअइयो, कौन कहे छठ मास रे,
कौन कहे बहना अवसर पेअइयो, कौन कहे क्या है, काम रे|
अम्मा कहे बेटी नित उठिअइयो, बाबुल कहे छठ मास रे |
भइया कहे बहना अवसर पेअइयो, भाभी कहे क्या है काम रे |
++ ++ ++ ++ ++ ++ ++
कौन के रोये से नदिया बहत है,कौन कौन के रोये से सागर ताल रे |
कौन के रोये से भीजेमोरी चुनरी कौंनके मन आनंद रे |
अम्मा के रोये से नदिया बहत है,बाबुल के रोये से सागर ताल रे |
भैया के रोये से भीजेमोरी चुनरी भाभी के मन आनंद रे ||
इस गीत में बेटी के प्रति माता, पिता, भाई और भाभी, जिनसे उसका मायका (पीहर) कहलाता है, उनके मनोभावों को दर्शाया गया है| ऐसे अनेकों पारंपरिक गीत हैं जो समय-समय पर गाये जाते हैं| गीत के भाव के हिसाब से गीतों की धुन होती है| लोकगीत भी किसी न किसी राग पर ही आधारित होते हैं| शास्त्रीय संगीत भी मेरे अध्ययन का विषय रहा है इसलिए मैं हर गीत में राग ढूँढ़ लेती हूँ| होली के गीत अधिकतर राग काफी में गाये जाते हैं| लोकगीतों में राग पीलू, भैरवी आदि का काफी प्रचलन है| लोकसंगीत शास्त्रीय संगीत का मूल है| लोकगीतों की विशेषता है कि आप इसमें विविधता लाकर इन्हें और रोचक और प्रभावी बना सकते हैं| लोकसंगीत की विशेषता यह भी है कि संगीत की धुन सुनने से ही पता चल जाता है कि वह किस क्षेत्र या प्रांत का है| जब मुझे बल्गारिया जाने का अवसर मिला तो वहां बिताए पाँच सालों में मैंने वहां के लोकगीत भी सुने, समझे, सीखे और गाए। देश कोई भी हो, भाषा कोई भी हो, भावनाएं वही होती हैं, रिश्तों की मिठास वही होती है और मन में कांटे भी वैसे ही होते हैं।
आपने मनोवैज्ञानिक के रूप में काम किया, कई साल दिल्ली विश्वविद्यालय में बल्गारियन भाषा भी पढ़ाई फिर गिरमिटिया साहित्य और प्रवासी भारतीय लोक संगीत में आपकी रुचि कैसे हुई?
मनोविज्ञान विषय की विशेषता ये है कि वह हर उस क्षेत्र से जुड़ा है जहां मानव है!दिल्ली स्थित 'पालना' संस्थान से मैं मनोविज्ञानिक के तौर से जुड़ी रही। 1974 में पति डॉ. विमलेश कांति वर्मा के साथ सपरिवार मुझे बल्गारिया में पाँच साल रहने का अवसर मिला। पति सोफ़िया विश्वविद्यालय में इंडॉलॉजी विभाग स्थापित कर रहे थे। हमने वहां बल्गारियन भाषा सीखी। वापस भारत आ कर हम दोनों ने कई कालजयी कृतियों के अनुवाद किए। दिल्ली विश्वविद्यालय में मैंने बल्गारियन भाषा पढ़ाई भी। फिर सन १९८४में पति की प्रतिनियुक्ति फ़ीजी स्थित भारतीय हाय कमीशन में प्रथम सचिव के पद पर हुई और हमें फ़ीजी जाने का अवसर मिला| फ़ीजी के विषय में उस समय मुझे अधिक मालूम नहीं था| उस समय विदेश के नाम से तो यही समझ में आता था कि विदेश में लोग अंग्रेज़ी के अलावा कोई अन्य भाषा नहीं समझते हैं। लेकिन वहां पहुँचने पर हवाई अड्डे पर ही हम लोगों का हिन्दी भाषा में स्वागत हुआ। मन प्रसन्न हो गया, भ्रम टूटा कि 'विदेश में बिना अंग्रेज़ी के काम नहीं चलेगा'| लगा कि हम अपने ही देश में हैं| जैसे-जैसे लोगों से मिलना शुरू हुआ उनकी हिन्दी भाषा ने बहुत जल्दी ही हमको अपना बना लिया| उनकी भाषा फ़ीजीबात, बहुत ही मीठी अवधी, भोजपुरी, खड़ी बोली, बमबईया हिंदी और वहां की मूलभाषा काईवीती आदि सभी भाषाओं को लेकर बनी मिश्रित भाषा है, और सुनने में बहुत ही अच्छी लगती है| जल्दी ही हमारे परिचित और पड़ोसी हमारे अच्छे मित्र बन गए| शुरू में वे अपनी हिन्दी बोलने में सकुचाते थे। वे कोशिश करके हमलोगों से शुद्ध हिन्दी बोलना चाहते थे जिसे वे रेडुआ (रेडियो)की भाषा कहते थे| हम अवध क्षेत्र के हैं, तो हम उनसे उन्हीं की भाषा में बोलने की कोशिश करने लगे। धीरे-धीरे उनका संकोच हट गया| फिर तो हमलोग खुले दिल से मिलते, बात करते। भाषा दो अजनबियों को कैसे जोड़ती है, यह हमने देखा| जैसे- जैसे हम फ़ीजी के लोगों के संपर्क में आये वैसे-वैसे उनके पुरखों की दर्द भरी दास्ताँ सुनने को मिलीं। किस तरह कष्ट उठाकर धोखे में उनको यहाँ लाया गया, किन कठिन परिस्थितियों में उन्हें रखा गया आदि| इन्हीं लोगों से ‘गिरमिटिया’शब्द भी सबसे पहले सुनने को मिला और उसके पीछे छुपी कहानी भी समझ आई| इतना कुछ सुन कर मन में उत्सुकता जगी कि इनके बारे में ज़रूर कुछ लिखा भी गया होगा| जब मन में कुछ जिज्ञासा हो तो साधन अपने आप ही बनते जाते हैं| जिस किसी भी सहेली से मिलती, उनके बाप दादों के विषय में जानने की जिज्ञासा होती| किसी के पुरखे फ़ैजाबाद के तो किसी के कानपुर के तो किसी के रायबरेली या बांदा के होते| परिवार के बड़े बूढ़े हमारा हाथ पकड़ कर गले लगाकर कहते कि अब हम लोग तो अपना गाँव कभी देख नहीं पायेंगे| कुछ संपन्न परिवार वाले अपने पुरखों का गाँव ढूँढ़ कर भारत भी गए और उन्हें संतोष हुआ कि वे अपने देश की धरती छूकर वापस आए।
लोगों से बातचीत करने और ढूँढ़ने से गिरमिटिया साहित्य की कुछ किताबें उपलब्ध हुईं। वहां के कई लेखक और कवियों से भी मिलना जुलना होता था| उनकी रचनाओं में भी वही दर्द दिखा| कुछ किताबें पढ़कर तो रोंगटे खड़े हो जाते| उन्हीं में से एक किताब थी पंडित तोताराम सनाढ्य की 'फ़ीजी द्वीप में मेरे इक्कीस वर्ष'। इसमें गिरमिटियों की दर्द भरी कहानी थी कि किस सीमा तक हमारे भारतीयों को बुरी दशा में रखा गया। कोड़ों की मार खाकर बदन छिलकर छलनी हो जाता फिर भी रात में एक जगह जमा होकर वे रामायण पढ़ते, भजन और गीत गाते और फिर अपनी छः फुट लम्बी चार फुट चौड़ी कोठरिया में सोने की कोशिश करते| मुझे जो भी बुज़ुर्ग मिलते उनसे किसी न किसी सन्दर्भ में गिरमिटियों की व्यथा कथा पर चर्चा हो ही जाती| फ़ीजी में बहुत सी रामायण और लोक गायकों की मंडलियाँ थीं| मुझे उन्हें सुनने का भी अवसर मिला। बड़े अच्छे गीत सुनने को मिलते| अधिकतर गीतों में उनकी व्यथा, धोखे से भारत छूटने का पछतावा, फिर से वापस न जा पाने की आशंका, सभी कुछ उनके गीत कह जाते और मन मस्तिष्क में पूरी तरह से छा जाते| एक गीत की कुछ पंक्तियाँ थीं-
किसके बताई हम पीर रे बिदेसिया
कारी कोठारिया में बीते नाही रतिया , किसके बताई हम पीर
मैं वहां बसे भारतीयों से उनके रीति रिवाजों के बारे में पूछती और शादी ब्याह जन्म आदि के गीतों के बारे में जानती। उनके कई गीत तो हमारे पारंपरिक गीतों जैसे ही होते और कुछ गीतों में वहां के देशज शब्दों को जोड़कर वे गाते| फ़ीजी के मूल निवासी काईवीती कहलाते हैं| वहां के लोकगीतों में काईवीती शब्द भी थे। फ़ीजी के लोकसंगीत में मेरी रूचि को देखते हुए फ़ीजी हिन्दी साहित्य समिति ने जिसके कर्णधार मुख्य रूप से श्री विजयेंद्र सुधाकर, श्री रामनारायण गोविन्द और श्री महेन्द्रचंद्र शर्मा 'विनोद' थे, ने भारतीय हाय कमीशन के सहयोग से 'लोक गीतोंभरी सांझ' कार्यक्रम का आयोजन किया। इसमें राजधानी सूवा और निकटवर्ती क्षेत्रों के अनेक लोकगायक और गायिकाओं के समूह पारंपरिक वेशभूषा में और पारंपरिक आभूषणों में सजधजकर आये| नए उभरते कलाकारों ने भी भाग लिया और उन्होंने आधुनिक वाद्यों के साथ अपने लोकगीत गाये| उनमें से एक लोकगीत मुझे अभी भी याद है जिसमें बेटी की ससुराल में दहेज के कारण जो दुर्दशा होती है उसकी भावपूर्ण अभिव्यक्ति थी|
बिटिया जऊने दिना से बिदा भई महतारी से, ना आई ससुरारी से ,हो|
घर माँ लेन- देन का रगड़ा होई गया दुइनो घर में झगड़ा ,
बिटिया सर दे मारी, घर की चहार दीवारी से |
यह गीत आधुनिक वाद्यों के साथ गाया गया था जिसने सभी श्रोताओं को गहरे तक हिला दिया था| इस प्रकार मेरे मन में वहां के लोक संगीत और लोक साहित्य से एक जुड़ाव सा हो गया| फ़ीजी में रहते हुए मैंने वहाँ के लोकगीतों का संग्रह करना प्रारम्भ कर दिया| इनमें फ़ीजी के गिरमिट गीत भी थे|
प्रवासी भारतीय लोकगीतों पर सबसे पहले आपने काम कब शुरू किया ?
जब कुछ बाते हर समय दिमाग पर छाई रहें तो उस पर काम अपने आप धीरे-धीरे शुरू हो जाता है| हम लोग चार साल बाद सन १९८७ में फ़ीजी से भारत लौटकर आये| यह वह समय था जब गिरमिटिया शब्द भारत के लिए नया सा था और लोग इसके अर्थ से परिचित नहीं थे| प्रवासी साहित्य भी भारतीयों के लिए नया सा ही विषय था| मैं आकाशवाणी में बहुत समय से संगीत और विविध विषयों से सम्बंधित कार्यक्रम देती आ रही थी| मैंने विविध आकशवाणी केन्द्रों से प्रवासी जीवन पर सोदाहरण वार्ताएं दीं। लोकगीतों के माध्यम से मैनें कई कार्यक्रमों में प्रवासी भारतीयों की पीड़ा और दुःख दर्द को आम जनता तक पहुंचाया| समय-समय पर कुछ गोष्ठियां आयोजित हुईं और गिरमिटिया तथा प्रवासी साहित्य पर चर्चा शुरू हुई| फ़ीजी के साथ प्रवासी भारतीयों वाले अन्य देश जैसे सूरीनाम, मारीशस, दक्षिण अफ़्रीका के लोकगीतों पर भी मैंने शोध किया। इसी बीच पति डॉ. विमलेश कान्ति द्वारा संयुक्त रूप से लिखी गई मेरी पुस्तक 'फीजी में हिंदी-स्वरूप और विकास' प्रकाशित हुई जिसमें एक अध्याय था -'फ़ीजी के गिरमिट गीत-प्रवासी भारतीयों की संघर्ष कथा के मौखिक दस्तावेज़'| प्रवासी भारतीयों से जुड़े कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में भी मैंने अपने शोध आलेख प्रस्तुत किये जो बहुत सराहे गए| गिरमिट जीवन की व्यथा कथा सुन श्रोता गिरमिटियों पर हुए अमानवीय अत्याचारों से अपना तादात्म्य स्थापित कर लेते और उनकी आँखों में आसूँ आ जाते| सच कहा जाए तो ये गिरमिट गीत प्रवासी हिन्दी साहित्य की अनुपम निधि हैं जिनका साहित्यिक महत्त्व तो है ही साथ ही ऐतिहासिक, समाजशास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक महत्त्व भी है| जब मैं दक्षिण अफ्रीका और मारीशस गई तो वहां गिरमिटिया के रूप में गए लोगों की चौथी और पांचवी पीढ़ी के भारतीयों से मिलने और जुड़ने का अवसर मिला| सभी के लोकगीतों में वही गिरमिटिया जीवन की पीड़ा, अपने पूर्वजों द्वारा झेले गए कष्ट उनके गीतों में भी सुनने को मिले| यह गीत मेरे प्रवासी लोकगीत संगीत संग्रह में जुड़ते गए| आज ये लोकगीत संग्रह मेरी अमूल्य निधि हैं |
आपने गिरमिट गीत पर कई अनुसंधानपरक आलेख लिखे और विभिन्न गोष्ठियों में पढ़े हैं| आपको क्यों लगता है कि इन गीतों पर शोध होना चाहिए ?
लोकगीत भी लोकसंगीत का एक स्वरूप है| यही कारण है कि भारतीय गिरमिटियों ने भी अपनी व्यथा कथा को जो शाब्दिक अभिव्यक्ति दी वह संगीत के माध्यम से दी| संगीत अभिव्यक्ति को अधिक प्रभावशाली बनाने की शक्ति रखता है| इन गीतों में एक वर्णनात्मकता है, घटनाओं का ऐसा चित्रण है (जो विषय की दृष्टि से बहुत अलग है) जो सुनने वाले पर तत्काल प्रभाव डालता है। ये गीत प्रवासी भारतीयों के संघर्ष के मौखिक दस्तावेज़ हैं, जो केवल घटनाओं के चित्र ही प्रस्तुत नहीं करते वरन उनके मन की टीस को भी श्रोताओं के सम्मुख रखते हैं| इन बीते दो सौ वर्षों में १८३४ से लेकर आज तक भारतीयों के प्रवास गमन, विदेश में अपने अस्तित्व के लिए कठिन संघर्ष से लेकर आज उनकी वर्तमान स्थिति तक पहुँचने की लम्बी यात्रा का प्रारम्भ तो उनके इन गीतों में ही दिखता है| इसलिए अगर विदेश में बसे हुए लाखों और करोड़ों की संख्या में प्रवासी भारतीयों के इतिहास लिखने की बात कभी उठेगी तो उनके प्रारंभिक संघर्ष का परिचय इन्हीं लोकगीतों से प्राप्त होगा और यह सप्रमाण बता सकेगा कि एक नए देश में नई आजीविका की खोज में बहला फुसलाकर एजेंट द्वारा नए देशों में जो लाये गए उनकी देश के विकास में कितनी बड़ी भूमिका रही है| उन्होंने विपरीत परिस्थितियों में रहकर कितना संघर्ष किया और उस देश को धन धान्य संपन्न बनाने में उनकी कितनी बड़ी भूमिका रही है| इसीलिए मुझे लगता है कि इस दिशा में कार्य करने की बड़ी आवश्यकता है|
फीजी, सूरीनाम, मारीशस, त्रिनिदाद तथा दक्षिण अफ्रीका के लोकगीतों में क्या समानताएं और विभिन्नताएं आपको दिखती हैं |
फीजी, मारीशस, सूरीनाम और त्रिनिदाद में जो भी भारतीय मजदूर के रूप में ले जाए गए सबके दुःख दर्द की कहानी एक ही है| अंतर केवल यही है कि फीजी अंग्रेज़ी भाषी ब्रिटिश उपनिवेश था, मारीशस फ्रांसीसी उपनिवेश था जबकि सूरीनाम डच उपनिवेश था। इन देशों में गए हुए भारतीय सामान्यतः पूर्वी उत्तर प्रदेश और पश्चिमी बिहार से गए थे जो मुख्यतः अवधी और भोजपुरी बोलते थे। परिणाम स्वरूप इन सभी देशों में गिरमिटिया भारतीयों की भाषा अवधी और भोजपुरी ही थी पर अवधी के साथ काईवीतियों की भाषा का पुट आ गया| फीजीहिंदी में जो अंग्रेज़ी शब्द थे वे भी विकृत रूप में इन गीतों में आ गए| 'कॉलनंबर' 'कोलम्बर' बन गया, 'रेक्रुटर' 'आरकाटी' बन गया और 'एग्रीमेंट' शब्द बदलकर 'गिरमिटिया' हो गया| इसी तरह मारीशस के लोकगीतों की भाषा में फ्रांसीसी शब्दों का मिश्रण होने लगा और वहां के मूल निवासियों की भाषा के शब्दों ने क्रियोली का रूप धारण कर लिया| सूरीनाम डच उपनिवेश था और वहां की मूल भाषा स्नाग्तोंगो थी| परिणाम स्वरूप वहां की हिन्दी मूल रूप में अवधी मिश्रित भोजपुरी रही और साथ ही उसमें डच और स्नाग्तोंगो शब्दों का प्रयोग भी हुआ| इस भाषा मिश्रण ने इन गिरमिट गीतों को हिंदी की नई शैली में ढालकर प्रस्तुत किया जो कि श्रोताओं के लिए एक नए आकर्षक रूप में सामने आए |
डायस्पोरा देशों की आपके अनुसंधान के सम्बन्ध में क्या प्रतिक्रियाएं हैं ?
गिरमिट गीतों को संगीत बद्ध रूप में या सोदाहरण वार्ता के रूप में प्रस्तुत करते समय मैंने हमेशा यह ध्यान रखा कि चूँकि ये गिरमिट गीत मूलतः गीत हैं इसलिए इनकी प्रस्तुति भी गीतात्मक ही होनी चाहिए| मैं अपने अनुभव से आपको बता सकती हूँ कि जहाँ भी सोदाहरण वार्ता के रूप में मैंने इनकी गीतात्मक प्रस्तुति दी, उसने श्रोताओं को हमेशा बहुत प्रभावित किया| मैंने गीतों के भावों के अनुसार उन्हें स्वर बद्ध किया| लोकगीतों के कार्यक्रम को लोग बहुत ही रूचि से सुनते हैं| यही नहीं जब मैं रिकॉर्डिंग के लिए जाती तो वहां मुझ से लोग गिरमिट गीतों के साथ प्रवासी भारतीयों के बारे में तरह-तरह की जिज्ञासाएं रखते| मुझे लगता है कि विविध पढ़े लिखे लोगों के मध्य से आने वाली ये विविध जिज्ञासाएं ये संकेत देती हैं कि इस दिशा में पर्याप्त अनुसंधान और विवेचन की आज आवश्यकता है |
धीरा वर्मा ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से मनोविज्ञान में एम.ए.किया है और एक मनोवैज्ञानिक के रूप में 'पालना'; संस्था से जुड़ी रही हैं| वे लेखिका संघ(अखिल भारतीय महिला लेखिका संघ), दिल्ली की उपाध्यक्षा हैं| वे दिल्ली विश्वविद्यालय के स्लावोनिक-फिनो-उग्रियन विभाग में दो दशकों से भी अधिक समय से बल्गारियन भाषा,साहित्य और संस्कृति की अध्यापिका रही है| उन्होंने बल्गारियन साहित्य की कालजयी कृतियों का मूल बल्गारियन भाषा से हिंदी में अनुवाद किया है| लगभग पांच दशकों से आकाशवाणी और दूरदर्शन के विविध संगीत कार्यक्रमों से जुड़ी रही हैं और आकाशवाणी की अनुबंधित संगीत कलाकार हैं| उनकी सौ से अधिक सोदाहरण संगीत वार्ताएं आकाशवाणी दिल्ली के नेशनल और दिल्ली चैनलों से प्रसारित हो चुकी हैं| प्रवासी लोकगीत और गिरमिट गीतों से सम्बंधित अनेक शोध पत्र उन्होंने देश विदेश में आयोजित राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय संगोष्ठियों में प्रस्तुत किये हैं| अपने अध्ययन अनुसंधान के सन्दर्भ में उन्होंने मारीशस, फीजी, दक्षिण अफ्रीका के साथ ही अमेरिका, कनाडा, बल्गारिया, यूनान, जर्मनी, स्विट्ज़रलैंड, इटली, मैसीडोनिया, मलेशिया, सिंगापुर, इंडोनेशिया, वियतनाम, कम्बोडिया, थाईलैंड, म्यांमार आदि कितने ही देशों की यात्राएं की है| धीरा वर्मा की महत्वपूर्ण प्रकाशित पुस्तकों में 'फीजी में हिंदी-स्वरूप और विकास' तथा 'प्रवासी भारतीय हिंदी साहित्य' है| बाल कथा साहित्य में उनकी विशेष रुचि है और उनकी १४ बाल कथा पुस्तकें अंग्रेज़ी अनुवाद सहित 'पेअरइटसीरीज' में (२८ पुस्तकों का सेट) प्रकाशित हैं| सम्प्रति वे स्वंतंत्र लेखन और अनुसंधान में अपना समय बिताती हैं |