लिट्ल इंडिया, सिंगापुर में छोटा भारत
भारत से जो भी विदेश बसने जाता है, अपने साथथोड़ा भारत भी ले जाता है। विदेश पहुंच कर वह अपना छोटा सा भारत बसाता है। सबके छोटे-छोटे भारत मिलकर नए देश में अपनी एक जगह बना लेते हैं,एक ऐसी जगह जो धीरे धीरे भारतीयों की पहचान सी बन जाती है। उनके इस भारत में भारतीय, बांग्लादेशी, पाकिस्तानी, श्रीलंकन सभी को अपनापन लगता है। यहीं जमघट लगता है और गर्मागर्म चाय की चुस्खियों के बीच सुख दुःख बंटता है। रंगबिरंगी साड़ियां दुकानों में लहराती हैं, ताज़ा मसाला पिसने की खुशबू आती है। मंदिर के घंटों, गुरुग्रंथ जी के शबद और मस्जिदों की अज़ान की पुकार सुनाई देती है और यहीं की तरकारी भाजी भाती है। घर की याद जब भी आती है तो यहीं के किसी रेस्त्रां में खाना खा कर मन बहलाया जाता है और तीज त्योहार का मौका हो तो पूजा पाठ के सामान से लेकर मिठाई नमकीन की कतार में जुड़ा जाता है। ये छोटा भारत थाएलैंड के बैंगकॉक में फाहूरत, मलेशियो के कुआला लुम्पुर में मस्जिद इंडिया और सिंगापुर में लिट्ल इंडिया कहलाता है।
सिंगापुर के एक खुशमिज़ाज टैक्सी ड्राइवर नेएक शाम लिट्ल इंडिया से गुज़रते हुए कहा, “इस जगह का नाम लिट्ल (छोटा) इंडिया नहीं, बिग (बड़ा) इंडिया होना चाहिए।हर तरफ़ लोग भरे हैं, ना सड़क पर जगह है ना फ़ुटपाथ पर। इतने इंडियन तो इंडिया में ही होते होंगें”। उस समय तो बात हंसी में खत्म हो गई। बाद में लगा बात तो वह सही कह रहे थे। आप सिंगापुर के लिटल इंडिया आएंगें तो आपको भी लगेगा आप अपने देश में ही हैं।
सिंगापुर का लिट्ल इंडिया देश के सबसे रंगीन औरजीवंत वातावरण वाले इलाकों में गिना जाता है। यह जगह सिंगापुर की हर जगह से अलग है, अनोखी है। सिंगापुर घूमने आया हर व्यक्ति यहां जाना चाहता है। जैसे चाइना टाउन चीनी संस्कृति को दिखाता है वैसे ही लिट्ल इंडिया सिंगापुर में भारतीय और भारतीय संस्कृति की कहानी बताता है।
बताया जाता है कि 14वी शताब्दी में सिंगापुर श्री विजयन इम्पायर का हिस्सा बना। तब यह जगह टेमसेक कहलाती थी। घूमने के लिए यहां एक विजयन राजकुमार आए। पेड़ों के बीच उन्हें एक जानवर की झलक दिखी। उन्हें लगा वह जानवर सिंह है। तभी से इस जगह का नाम सिंहपुर और फिर धीरे - धीरे सिंगापुर पड़ गया।
सर स्टैमफ़र्ड रैफ़ल्स ने 1819 में ब्रिटिश कॉलनी के रूप में आधुनिक सिंगापुर की नीव रखी थी। उनके साथ तमिल ओरिजन के नारायण पिल्लई भी थे। नारायण पिल्लई कलोनियल ट्रेशरी के क्लर्क थे। बताया जाता है कि वह सिंगापुर आने वाले पहले भारतीय थे। (1824 की जनगणना के अनुसार 1824 में सिंगापुर में 756 भारतीय थे। हर दशक के साथ भारतीयों की संख्या यहां बढ़ती गई।) 1823 में सर स्टैमफ़र्ड रैफ़ल्स ने सिंगापुर के लिए एक नक्शा- ‘रैफ़ल्स टाउन प्लैन’बनाया। इसमें उन्होंने समुदाय के आधार पर रहने की जगह बनाई। (सिंगापुर में तीन जातिया प्रमुख हैं- चीनी, मलय और भारतीय। यही वजह है कि देश की राष्ट्रीय भाषाओं में अंग्रेज़ी के साथ चाइनीज़, मलय और तमिल भी शामिल हैं।) नक्शे में चीनियों के लिए चाइना टाउन, मलय समुदाय के रहने के लिए कैंपुंग गेलाम और भारतीयों के लिए चूलिया कैंपुंग था। जब भारत से काम की तलाश में आने वालों की संख्या इतनी बढ़ गई कि चूलिया कैंपुंग में रहना मुश्किल था, वो रहने के लिए सेरंगून रोड आए।
आज का लिट्ल इन्डिया उस समय सिर्फ़ सेरंगून रोड के नाम से जाना जाता था। (1970 के बाद यह जगह लिट्ल इन्डिया के नाम से जानी जाने लगी)। सेरंगून रोड तब कलांग और रोशोर नदी के पास थी। पानी था तो रहने और काम करने की सुविधा थी। ज़मीन उपजाऊ थी। धान और पान की खेती थी। फिर गन्ना भी खूब होने लगा। देश की दो ख़ास सड़कों के बाद ही सेरंगून रोड बनाई गई थी। इलाके में उगाई फ़सल को और जगह पहुचाने के लिए यह ज़रूरी था। 1840 की शुरुआत में यहां एक रेसकोर्स बना। उसी रेसकोर्स पर सड़क का नाम आज भी रेसकोर्स रोड है। यूरोपीयों को घुड़दौड़ देखने का ख़ास शौक था, रेसकोर्स बनते ही वह इस इलाके में रहना पसंद करने लगे।
सज संवर के लोग रेस देखने जाते और अपने लोगों के बीच समय बिताते। लगभग इसी समय नदी के पास गाय भैंस का पशुपालन भी अच्छा चलने लगा। आज भी लिट्ल इंडियाकी एक सड़क का नाम इसीलिए बफ़लो रोड है। कलकत्ता में जन्मेंयहूदी व्यापारी आईआर बेलिलियोस सिंगापुर आए। उन्होंने भी यही काम शुरू किया। 1840 तक उनका काम अच्छा जमा और ख़ूब बढ़ा। लिट्ल इंडिया की बेलिलियोस रोड और बेलिलियोस लेन उन्ही के नाम पर है। यहां भैंस गाय से दूध और मांस का बाज़ार चलता था। इसके साथ ही गाय भैंस की मदद से यातायात और सादी मशीने चलाने का काम भी होता था। इस लिए आसपास अनाज पीसने और अनानास सुखाने का काम भी होने लगा। अच्छा मुनाफ़ा था। ये काम ज़्यादातर भारतीय ही करते थे और इसलिए वह आसपास ही रहते थे। इस समय सिंगापुर आने वाले ज़्यादातर लोग तमिल और बंगाली भाषी थे। बेलिलियोस भी अधिकतर अपने शहर के बंगालियों को नौकरी देते थे।
काली की पूजा तमिल और बंगाली दोनों करते हैं। बेलिलीयोस रोड पर खड़ा श्री वीरमकालीयामन मंदिर सिंगापुर का पहला काली मंदिर है। बताया जाता है कि 1855 में तमिल कर्मियों ने इसे बनाया था। इसी समय रेसकोर्स रोड और सेरंगून रोड के बीच श्री श्रीनिवास पेरुमल मंदिर बना। सूरत से आए अंगुलिया व्यापारी परिवार ने 1890 में अंगुलिया मस्जिद बनवाई । इस तरह धीरे धीरे भारतीय और भारतीयता से जुड़ी चीज़े बढ़ती गईं। 19वी शताब्दी के खत्म होते होते जो भारतीय भारत से आ रहे थे वह कुछ नया कारोबार करना चाहते थे। भारतीयों की संख्या लगातार बढ़ रही थी और उनकी ज़रूरतें पूरा करने के लिए काम करने का दायरा भी बढ़ रहा था। 20वी शताब्दी की शुरुआत तक पशुपालन खत्म होने लगा क्योंकि जहां ये था वहां अब सड़कों और इमारतों की ज़रूरत थी। 1915 में यहां टैक्का मार्केट बना। इस बाज़ार में चीनी, मलय, भारतीय, सभी लोग ताज़ा मीट, मछली और सब्ज़िया लेने आते थे। सुबह से भीड़भाड़ रहती, मोल भाव होता। दूसरे विश्व युद्ध का असर सेरंगून रोड पर भी पड़ा। उस समय के जापानी नियमों से कारोबार को बहुत नुकसान हुआ। कई लोग अपना व्यापार बेच कर चले गए। जो डटे रहे उनका समय बदलने के साथ फ़ायदा भी हुआ। समय बदला। 1960-70 के बीच कई भारतीय इस इलाके से रहने के लिए सरकार के बनाए या खुद बनाए घरों में चले गए। लिट्ल इंडिया मुख्यत व्यापार का केन्द्र ही रह गया। आज भी ऐसा ही है।
सेल्जी रोड और लैवेन्डर स्ट्रीट के बीच की सेरंगून रोडपर सड़क के दोनों तरफ़ दुकाने हैं। सड़क से जुड़ी हुई सभी गलियों में भी भारतीय कपड़ों, ज़ेवर, सब्ज़ी, अनाज, नाई की दुकाने एक के बाद एक लगी हुई हैं।
ये दोमंज़िला दुकाने शॉपहाइज़ कहलाती हैं।सुबह सड़क पर पैदल चलिए तो दोसा, सांभर की ख़ुशबू हर कुछ कदम पर आएगी। दोपहर में आइए तो इस ख़ुशबू के साथ मुगलई नान, कबाब, उत्तर भारतीय मसाला भुनने की भी ख़ुशबू जुड़ जाएगी। फूल वालो की दुकान जल्दी सुबह गेंदा, गुलाब, कमल और कई फूल पत्तियों का साथ सज जाती है। फूलवाले माला पिरोने में व्यस्त रहते हैं और बाकी दुकान वाले सुबह दुकान खोलने के पहले मंत्रोच्चारण करते दिखते हैं। इन सड़कों पर माथे पर कुमकुम लगाए, बाल में वेणी सजाए, साड़ी पहने महिलाएं सामान खरीदती दिखती हैं। यहां कि दुकानों में दाल, आटा, चावल सभी मिलता है। भारत से भी सामान आता है। इसी सड़क पर कई ब्यूटी पार्लर हैं जहां भारतीय दुल्हन संवरने जाती हैं, मेंहंदी लगवाती है। 1915 में बने टेक्का मार्केट को 1982 में तोड़ दिया गया था। वहां के ज़्यादातर दुकानदारों ने सड़क पार बिल्डिंग में दुकान ले ली।यहां वे तमिल किताबें और अख़बार भी बेचते थे।2000 में उस बिल्डिंग का नाम टेक्का सेंटर कर दिया गया। टेक्का सेंटर में ताज़ा मांस मछली, सब्ज़ी, फूल तो मिलता ही हैं, ऊपर की मंज़िलों में भारतीय कपड़े और उनको सिलने वाले दर्ज़ी बैठते हैं। इस बाज़ार में आप सिंगापुरी भारतीय खाना जैसे रोटी प्राटा, दाल करी, बेरयानी, वडई, इंडियन रोजक का आनन्द भी उठा सकते हैं। मलय भाषा में रोजक का मतलब मिक्सचर होता है। इंडियन रोजक में कोर्नफ़्लार में लपटा और तला पका केला, उबला आलू, टोफ़ू और झींगा के साथ उबला अंडा, अंकुरित दाल और खीरा होता है। इसे मीठी-तीखी गाढ़ी मूंगफली की चटनी के साथ खाया जाता है। बताया जाता है कि 1950-60 में भारतीय इमिग्रेंट्स ने इस का आविष्कार किया था। इंडियन रोजक में मलय और इंडोनेशियन स्वाद भी आपको मिलेगा।
रविवार को लिट्ल इंडिया के पार्कों में कंसट्रकशन वर्कर्स का जमघट रहता है। हफ़्ते भर कड़ी धूप में दिनभर काम करने के बाद छुट्टी का दिन वह यहाँ बिताते हैं। यहीं अपने गांव से आए लोगों से मिलते है, कोई जाने वाला हो तो कमाई उनके हांथ घर भिजवाते हैं।
लिट्ल इंडिया सिंगापुर में बसे भारतीयों का सांस्कृतिक केन्द्र भी है। भरतनाट्यम, शास्त्रीय संगीत और अनेक कलाओं के स्कूल यहां है। हिन्दी सोसाइटी भी यहीं है। सिंगापुर बंगाली असोसिएशन, खालसा असोसिएशन, भोजपुरी सोसाइटी भी पास हैं। श्री लक्ष्मीनारायण मंदिर, आर्य समाज मंदिर, रामकृष्ण मंदिर इसी इलाके में हैं। इसी तरह कई मस्दिद, गिरिजाघर, बौद्ध मंदिर भी हैं। पोंगल, थाइपूसम, दुर्गा पूजा, दीवाली यहां सब त्योहार ज़ोर शोर से मनाए जाते है। दीवाली के लगभग दो महीने पहले से लिट्ल इंडिया जगमगाने लगता है। सड़कें सज जाती हैं। मेला लगता है और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होता है। अगर आप सिंगापुर में भारतीयों के इतिहास के बारे में और जानना चाहते है तो लिट्ल इंडिया की कैंपबेल लेन पर इंडियन हेरिटेज सेंटर ज़रूर जांए।
लिट्ल इंडियामें आपकोकश्मीरी, बंगाली, गुजराती, नेपाली, देसी चाइनीज़, चेट्टीनाड- हर तरह का खाना मिलेगा जो आपका मन करे। रात में नींद ना आ रही हो तो मुस्तफ़ा शॉपिंग सेंटर जा सकते हैं। ये सिंगापुर का पहला 24 घंटे खुले रहने वाला शॉपिंग सेन्टर है। भारत के उत्तर प्रदेश से 1952 में आए हाजी मोहम्मद मुस्तफ़ा ने अपने भाई के साथ 1965 में एक छोटी दुकान खोली थी। काम इतना बढ़ा कि आज एक पूरी सड़क पर मुस्तफ़ा शॉपिंग सेंटर है। दुनियाभर का सामान यहां गंजा हुआ है। हीरा हो या भिंडी, किताब हो या साड़ी, या आपको हवाई टिकट ही क्यों ना चहिये हो, यहां आपको सब मिलेगा।
लिट्ल इंडियाकी वजह से सिंगापुर के भारतीयों का ‘इंडियन’रहनामुमकिन रहा। यह वह जगह है जो उन्हें अपने पूर्वजों के देश से भावात्मक और सांस्कृतिक रूप से जोड़े हुए है। लिट्ल इंडिया वह जगह भी हैं जहां भारतीय संस्कृति दूसरी संस्कृतियों से हाथ मिलाती दिखती है। यहां के मंदिरों में अकसर आपको चाइनीज़ लोग पूरी श्रद्धा के साथ हाथ जोड़े, मत्था टेकते हुए दिखेंगें। मिठाई की दुकान में अपनी कार के डैशबोर्ड पर रखे गणेश जी के लिए लड्डू लेते दिखेंगें। हिन्दी या तमिल फ़िल्म देखने वालों में मलय युवक युवतियां भी होंगें।
तीस साल पहले सिंगापुर में रहने वाले अधिकांश लोगों को लगता था कि हर भारतीय की मातृभाषा तमिल है क्योंकि यहां बसे भारतीय ज़्यादातर तमिल भाषी हैं। इसीलिए उस समय यहां दक्षिण भारतीय खाना ज़्यादा मिलता था। उत्तर भारतीय रेस्त्रां गिने चुने ही थे, और जो थे, उनमें ज़्यादातर, बहुत महंगे थे। पिछले बीस सालों में सिंगापुर आकर काम करने वाले उत्तर भारतीयों की संख्या काफ़ी बढ़ी। काम का दायरा भी बढ़ा। जहां पहले कंस्ट्रकशन के लिए ही ज़्यादातर लोग आते थे अब बड़ी कंपनियों, बैंकों में भी काम करने वालों की तादाद बढ़ने लगी। इसी तरह पहले घर के काम में हांथ बटाने के लिए महिलाए दक्षिण भारतीय होती थी क्योंकि यहां वे उन्हीं परिवारों में काम करती थी जहां तमिल भाषा का प्रयोग होता था। जैसे जैसे उत्तर भारतीयों की संख्या बढ़ी पंजाब और पूर्वी भारत से हिन्दी बोलने वाली महिलाएं घर के काम में हांथ बटाने के लिए आने लगी।
विशेषज्ञ सिंगापुर में भारतीयों के दो फ़ेज़ मानते हैं- 1965-1990 और दूसरा 1990 के बाद का समय। 1957 से 1980 में सिंगापुर में भारतीयों की संख्या 9%से घटकर 6.4%हो गई। इसका एक बड़ा कारण सिंगापुर से ब्रिटिश सेना का हटना था। सेना के हटते ही सेना में काम करने वाले भारतीय वापस भारत चले गए। 1965 के बाद नए इमिग्रेशन नियमों से लोगों का आना भी कम हो गया। सरकार ने अंतर जातीय संबंद्ध बढ़ाने के लिए कई नियम बनाए। कोशिश थी कि सब जातियां अपनी संस्कृति संभालते हुए एक साथ सौहार्द से रहे। इन कोशिशों से सिंगापुरी भारतायों की एक अलग पहचान बनी। 1991 में सरकार ने सिंगापुर इंडियन डेवलप्मेंट असोसिएशन (सिंडा) की स्थापना की। इसका काम भारतीय समुदाय की शैक्षिक और सामाजिक समस्याओं को सुलझाना था।
1990 के बाद के सालों में देश की इमिग्रेशन पॉलिसीज़ उदार बनाई गईं जिससे पढ़े लिखे विदेशी
प्रोफ़ेशनल सिंगापुर के विकास का साथ दें, भागीदार बनें। ये लोग सिंगापुर में बसे ये भी संभव था। जब लोग बढ़े तो उनकी पसंद और ज़रूरत की चीज़ें भी मिलने लगीं। भारतीय स्कूल भी यहां खुलने लगे। आज सिंगापुर में नैशनल पब्लिक स्कूल, युवा भारतीय स्कूल, दिल्ली पब्लिक स्कूल और ग्लोबल
इंडियन स्कूल में अधिकांश भारतीय बच्चे पढ़ते हैं। केबल टेलिविज़न पर कई भारतीय चैनलों पर भारतीय फिल्में, संगीत और सीरियल देखे जा सकते हैं।
कई बड़ी कंपनियों में ऊचे पद पर भारतीय काम संभाल रहे हैं। लिट्ल इंडिया की सड़कों पर अब अकसर हिन्दी सुनाई दे जाती है। दस साल पहले अगर आप हिन्दी फ़िल्म देखना चाहते तो शहर में एक पिक्चर हॉल था। आज शहर में कई थिएटरों में हिन्दी फ़िल्में लगती हैं। भारतीय कई क्षेत्र में काम करते हैं। कंसट्रकशन, घर में काम करने वाली महिलाएं, रेस्त्रां में काम करने वाले, सिंगापुर की युनिवर्सिटी में पढ़ने आए भारतीय छात्र, सिंगापुर में काम कर रही भारतीय कंपनियो और भारतीयों द्वारा सिंगापुर में स्थापित की गई कंपनियो में काम करने के लिए भारत से लोग आते हैं। इससे दोनों देशों में रोज़गार का मौका रहता है।
इस देश में आज दो तरह के भारतीय हैं- सिंगापुरी भारतीय और भारतीय भारतीय। दोनों एक दूसरे को अपने से भिन्न मानते हैं लेकिन कहीं एक जुड़ाव भी पाते हैं। आज यदि आप सिंगापूर के ‘लिटिल इंडिया’ में जायेंगे तो वहां आपको एक अपनापन लगेगा और आप महसूस करेंगे कि भारत से दूर, बहुत दूर एक छोटा भारत यहाँ भी है |यदि आप कभी सिंगापुर घूमने आयें तो लिटिल इंडिया ज़रूर आयें |